Islamic Status

 Islamic status

01,मुझे अब भी उन दिनों की याद है,

जो मैंने अभी के लिए दुआ की हैं।

हर चीज के लिए अल्हमदुलिल्लाह।"


02,कठिन समय बीत जाएगा, कष्ट समाप्त हो जाएंगे।

बस अल्लाह की परीक्षा में फेल नहीं होना चाहिए। "



"हालात जैसे भी हों हमारा अल्लाह रास्ता निकाल ही लेता है." 



"जब वास्तै आवर रास्ते अल्लाह से जुड़ जायें तो फिर दिल नहीं टूटा करते."


"तमन्ना आपकी सब पूरी हो जायें,

हो आपका मुक़द्दर इतना रौशन कि,

आमीन कहने से पहले आपकी हर दुआ कबूल हो जाये!"

 


"हर किसी के नसीब में कहा लिखी होती हे चाहतें

कुछ लोग दुनिया में आते हे सिर्फ तन्हाइयों के लिए जीते हैं

"





"तमाम मुहब्बतों से बढ़कर के मुहब्बतों का हक़दार अल्लाह है..."



जो लोग दूसरो को अपनी दुआओं में शामिल करते हैं…

खुशियाँ सब से पहले उन्हीं के दरवाज़े पे दस्तक देती है



"बहुत नवाज़ा है हमारे खुदा ने हमें

हमारे अमाल के बराबर मिलता

तोह शायद कुछ भी न मिलता"



"ना किसी से गिला कर ना किसी से शिकवा कर.. 

5 वक़्त की नमाज में सब के लिए दुआ कर 



. "कभी कभी बुरा वक्त आपको अच्छे लोगों से मिलवाने के लिए आता है."


"मेरी आमाल इस काबिल तोह नही

केह जन्नत मांगू ए अल्लाह

बस इतनी सी दुआ है केह मुझी

जहांआम सी बचना



"ज़मीर जाग ही जाता है,

अगर ज़िन्दा हो. कभी गुन्नाह से पेहली,

कभी गुन्नाह के बाद"



"मेरी औकात इस काबिल तो नही के में जन्नत मांगु

या रब बस इतनी सी अर्ज़ है के मुझे जहन्नुम से बचा लेना"



"बहुत मजबूत हूं मैं यह दुनिया जानती है,

बहुत कमजोर हूं मैं यह अल्लाह जानता है."



"दो ही चीज़ें एसी है जिसमे किसी का कुछ नहीं जाता एक मुस्कराहट 

और दूसरी दुआ हमेंशा बांटते रहें."



"वफ़ा करनी ही तू माँ बाप से करो दुन्या आप को तब ही

पेयर करे गी जब आप के पास दुन्या के लीये कुछ न होगा,"



"उस ख़ुदा सय दरती रो जिसस की सिफत यह है

कह अगर तुम बात करो तोह सुन्नता ही

अगर दिल में रखो तोह वह जननता ही..!!!"



"अक्सर शाम को आती है,

फलक से आवाज़, सजदा करती है सेहर जिस को,

वह है आज की रात विश यू वेरी हैप्पी शब्-इ-क़दर"



"बच ना सका खुदा भी मोहब्बत के तकाजे से.

एक महबूब की खातिर सारा जहान बना डाला 



"जब तू चाहे के उम्मीदों से फायदा उठानेवाला हो 

तो नफ़्स को ख्वाहिशात की पैरवी से बचा."



"बेशक पहनलो हमारे जैसे कपडे और ज़ेवर ,

पर कहा से लाओगे , इस्लामिक   तेवर।"


"कौन कहता है मुलाकात मेरी आज की है,

तू मेरी रूह के अंदर है कई सदियों से!!"



"दूसरों की कामयाबी पर खुश होना सीखो,

अल्लाह आपको भी देने में देर नहीं करेगा."



"नसीब से ज्यादा कीमती दुआ होती है,

क्यों की जब ज़िन्दगी में सब कुछ बदल जाये तो दुआ नसीब को बदल सकती है."


"यह जो अल्लाह के फैसले होते है न..

हमारी ख़ुवैशात से बेहतर होते हैं 



"इस्लाम मुसलमानों को अल्लाह के सिवाय

किसी और की इबादत करने की इजाज़त नहीं देता हैं 



"इंसान का मुक़दर

उतनि ह़ी बार बदलता हैं

जितनीं बार वों अल्लाह से

दुआ करता हैं"


Hazrat Ismael alaihissalam ki paidaish

   हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की पैदाइश
Ismael alaihissalam

ख़ुदा तआला हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को ने खेती का सामान और बहुत कुछ दिया था। जानवर, बकरियां,


हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के दिल में यह ख़्याल आया कि ख़ुदा का हम पर बहुत करम है, उसने हमें दुनिया और आख़िरत की नेमत बख़्शी है। अगर वह अपनी रहमत से मुझे एक बेटा इनायत करे तो वह नुबूवत और रिसालत के काम में हमारा वारिस होगा।


ख़ुदा ने उनकी यह नेक ख़्वाहिश पूरी की और उन्हें हज़रत हाजरा के पेट एक लड़का इनायत फ़रमाया।

बाप का दिल बाग़-बाग़ हो गया। हज़रत इब्राहीम के मुंह से निकला : 'अलहम्दुलिल्ला हिल्लज़ी व ह-व-ली अलल किबरि इस्माईल'.


"उस ख़ुदा का शुक्र है जिसने मुझे बुढ़ापे में इस्माईल दिया।"


इस तरह हज़रत इब्राहीम ख़ुदा का शुक्र अदा किया।


ने


बुढ़ापे की औलाद बहुत प्यारी होती है। हज़रत इब्राहीम हज़रत इस्माईल से बहुत मुहब्बत करते थे। हुक्मे इलाही पहुँचा


“ऐ इब्राहीम मां-बेटे को बियाबान में छोड़ और किसी का ख़ौफ़ न कर।"


हज़रत इब्राहीम बेचैन दिल और आंसू भरी आंखें लेकर मक्का की तरफ़ बढ़े। मक्का के क़रीब एक मैदान में हज़रत हाजरा और हज़रत इस्माईल को


छोड़कर घर की तरफ़ बाग मोड़ ली।


बीवी हाजरा ने सब्र के साथ बच्चे को गोद में लिया (वह परेशान थीं), मैदान ख़ुश्क और गर्म था। वहाँ न आदम, न आदमज़ाद। बीवी हाजरा ने रोकर कहा, 'आप मुझे और इस बच्चे को इस बियाबान में किसके सुपुर्द कर रहे हैं और कुछ कहते भी नहीं है ?


हज़रत इब्राहीम का दिल भर आया। आपने फ़रमाया, "वही ख़ुदा तुम्हारी हिफ़ाज़त करेगा जो सारे जहान का निगहबान और हिफ़ाज़त करने वाला है। "


हज़रत हाजरा बोलीं:


'हस्बियल्लाहु व तवक्कलतु अलल्लाह.'


"अल्लाह मेरे लिए काफ़ी है, मैंने अल्लाह ही पर भरोसा किया।" हज़रत इब्राहीम ने मुल्क शाम की राह ली और कुछ ख़ुरमा और एक

छागल पानी उन्हें दिया। मां-बेटे पर नज़र डाल कर ख़ुदा से यह दुआ कि


'रब्बना इन्नी अस्कन्तु मिन जुर्रियति बिवादिन गैरि जी जर इन इन्द बैतिकल मुहर्रम


"हमारे रब, मैंने एक ऐसी घाटी में जो खेती के लायक नहीं, अपनी औलाद का एक हिस्सा तेरे इज्जत वाले घर के पास बसा दिया है। हमारे रब, ताकि वह नमाज़ क़ायम करें, लेकिन लोगों के दिलों को उनकी तरफ़


झुका दे और उन्हें पैदावार की रोज़ी अता कर। शायद वे शुक्र गुज़ार हों।


जब हज़रत हाजरा का पानी और खाजा खत्म हो गया तो बहुत दिलगीर हुईं। बच्चे की प्यास उनसे देखी न जाती थी। समझा की शायद आखिरी वक़्त आ गया है। कोई ख़ुदा के फैसले से कहां तक भाग सकता है। वह पानी की तलाश में दौड़कर सफा पहाड़ पर पहुँची। इधर-उधर नज़र दौड़ाई लेकिन कहीं पानी दिखाई न दिया और कोई आदमी भी नज़र न आया जिससे वह पानी तलब करतीं। फिर वह वहाँ से दौड़कर मरवः पहाड़ पर आयीं और


'अल अतश! अल अतश!' (प्यास! प्यास !)


कहकर ख़ुदा की बारगाह में फ़रियाद की, लेकिन कहीं पानी का निशान न मिला। प्यासे बच्चे का ख़्याल आता तो वह उसके पास पहुँचर्ती और छाती से लगातीं, फिर बच्चे को छोड़कर सफ़ा-मरवः का चक्कर लगातीं। इस तरह उन्होंने सात चक्कर लगाए।


आखिर में हज़रत हाजरा ने बच्चे को देखा कि वह ज़मीन पर अपनी एड़ियां मार रहे थे। ख़ुदा बच्चे के क़दमों के नीचे से पानी का एक चश्मा ने जारी कर दिया था। जब हजरत हाजरा ने पानी का चश्मा देखा तो बोलीं, 'ख़ुदाया तेरी मेहरबानियों और नेमतों का शुक्रिया' !


हज़रत हाजरा ने चाहा कि पानी से छागल भर लें। ग़ैब से आवाज़ आई, “यह पानी रहमते इलाही से है। भर मत। यह कम होने का नहीं है।

यह फ़ैज़ जारी रहेगा। ख़ुदा ने तेरी और तेरे प्यारे की हिफ़ाज़त का यह सामान किया है। यह बच्चा और इसका बाप ख़ुदा का घर बनाएगा और तमाम दुनिया हज और तवाफ़ के लिए आएगी।" इस खुशखबरी को सुनकर वह बहुत खुश हुई। उनकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा।


देख-भाल और परवरिश


क़बीला जरहम के लोग मक्के की राह से तिजारत करने शाम मुल्क जाया करते। इत्तिफ़ाक़ से इस क़बीले के क़ाफ़िले ने मक्के के मैदान में क़ियाम किया और वहीं रात गुज़ारनी चाही। उन्होंने देखा कि परिंदे उड़ रहे हैं। समझा कि यहां कहीं पानी का चश्मा ज़रूरी है। एक शख़्स ने आकर देखा कि एक साफ़ पानी का चश्मा मौजूद है और एक नेक ख़ातून और उसका बच्चा उसके किनारे ठहरे हुए हैं। वह इस जंगल में उन्हें देखकर बहुत हैरान हुआ और पूछा कि तुम कौन हो, जिन्न हो या इन्सान ?


बीवी हाजरा ने फ़रमाया, “ख़ुदा ने अपने फ़ज़्ल से मुझे यह बच्चा इनायत किया है और उसके ही तुफ़ैल से यह चश्मा जारी हुआ है।"


उसने जाकर क़ाफ़िले वालों को खुशख़बरी सुनायी। क़ाफ़िले का सरदार बीबी साहिबा की ख़िदमत में आया और कहा कि अगर हुक्म हो तो हमारी क़ौम यहाँ आकर आबाद हो जाए। इसी तरह आपकी तहाई और वहशत भी कम होगी और आप ख़ुश होंगी।


हज़रत हाजरा ने फ़रमाया, 'अगर मेरी सरपरस्ती क़बूल करो तो जाओ और अपने बाल-बच्चों को ले आओ। अभी थोड़े ही दिन गुज़रे थे कि उसकी क़ौम अपने बाल-बच्चों और जानवरों के साथ हाज़िर हुई और उसी चश्मे के पास आबाद हो गयी। उसने वहाँ मकान बनाये और हज़रत • इस्माईल की परवरिश की ज़िम्मदारी अपने ऊपर ले ली। इसी तरह हज़रत इस्माईल की परवरिश का ग़ैब से इन्तिज़ाम हुआ।


इसी क़बीले में हज़रत इस्माईल की परवरिश हुई। हज़रत जिब्रील ने

हज़रत इब्राहीम को सारे हालात की खबर कर दी। हजरत इब्राहीम साल में एक बार सवार होकर यहां आते थे और अपने बाल बच्चों से मिलकर वापस चले जाते थे। जब हज़रत इस्माईल की उम्र पंद्रह साल की हुई तो बीवी हाजरा का इन्तिकाल हो गया और उन्हें हजरे-अस्वद के पास दफ़्न किया गया हजरत इस्माईल मां की जुदाई से ग़मगीन हुए और उनका दिल वहाँ रहने से उचाट हो गया क्रीम के सरदार और जिम्मेदार लोग हज़रत इस्माईल की खिदमत में हाजिर हुए और उन्हें बड़ी मिन्नत और समाजत से ठहराया और ऊंचे खानदान की एक लड़की से आपका निकाह करा दिया।


हज़रत इस्माईल को शिकार का शौक था। वे अक्सर जंगल और पहाड़ी में शिकार के लिए जाया करते थे। इत्तिफ़ाक़ से एक रोज हजरत इब्राहीम मक्का तशरीफ़ लाए। जब उन्हें मालूम हुआ कि बीवी हाजरा का इन्तिकाल हो गया है तो उन्हें बड़ा ग़म हुआ। घर पर पहुंचे। हजरत इस्माईल की बीवी से हाल पूछा और दरयाफ्त किया, इस्माईल कहां है? हजरत इस्माईल की बीवी हजरत इब्राहीम को पहचान न सकीं। उन्होंने हज़रत इब्राहीम की कोई ताजीम और मेहमानदारी न की। हजरत इब्राहीम ने फरमाया कि इस्माईल शिकार से आए तो मेरा सलाम कहना और मेरा यह पैग़ाम पहुँचा देना कि तेरे दरवाज़े की चौखट ठीक नहीं है और हमें ऐसी चौखट पसंद नहीं है। हजरत इब्राहीम यह कहकर शाम की तरफ रवाना हुए।


हजरत इस्माईल शाम को घर आए। बीवी ने उनसे सब हाल बयान किया और हज़रत इब्राहीम का पैग़ाम उन तक पहुंचाया। हजरत इस्माईल ने फ़रमाया, "घर की चौखट तू ही है, मगर बेअदब और बे सलीक़ा है और मेरे बुजुर्ग बाप को पसंद नहीं उनका इशारा यह है कि मैं तुझे तलाक़ दे दूं।"


हज़रत इस्माईल ने बीवी से अलग होकर एक दूसरी नेक खातून निकाह किया। से


हजरत इब्राहीम जब दूसरी बार मक्का तशरीफ़ लाए, इस नेक खातून ने हज़रत की बड़ी ताज़ीम की और कहा

“मेरा शौहर शिकार के लिए बाहर गया है। लौंडी आपकी ख़िदमत में हाज़िर है। "


जो रोटी तैयार थी, इब्राहीम की ख़िदमत में पेश की और जहां तक बन सका आपकी खातिर की। हज़रत इब्राहीम ने अपनी सवारी ही पर खाया और इस बीवी की ख़िदमत और ख़ूबी देखकर इसे नेक फ़ाल समझा।


चलते वक़्त फ़रमाया, "इस्माईल से कहना कि तेरे घर का आस्ताना बहुत मुनासिब है और हमारी तबियत बहुत खुश हुई।” जब हज़रत इस्माईल शिकारगाह से घर लौटे और अपनी बीवी से मिले तो बीवी ने उन्हें सारे हालात सुनाए । हज़रत इस्माईल ने फ़रमाया


‘ऐ ख़ुशक़िस्मत ! वह मेरा बाप था और उसका इशारा यह है कि इस आस्ताने को क़ायम रखूं और तुझको अपने से जुदा न करूं, और जहां तक हो सके तेरी नाज़बरदारी और ग़मगुसारी करूं।

हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम Hazrat Ibrahim alaihissalam.

 हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम Hazrat Ibrahim alaihissalam.

Hazrat Ibrahim alaihissalam

हज़रत इब्राहीम के बाप का नाम आज़र था। उस ज़माने में नमरूद नाम का काफ़िर हुकूमत करता था। वह अपनी जनता के साथ इन्साफ़ करता सखी दाता जैसी उसकी बड़ी खूबी थी।
एक ज़माने के बाद वह शैतान के फंदे में आ गया। गन्दे विचार उसके मन में बैठ गये। हुकूमत करते-करते वह ख़ुदाई का दावेदार हो गया। अपने बुत बनवाकर इबादतख़ानों में रखवा दिये। जनता को आर्डर दे दिया कि वह उसके आगे अपना माथा टेके ।
एक दिन नुजूमियों ने सितारों पर नज़र करके नमरूद से यह अर्ज़ किया कि इस साल इस शहर में एक ऐसा लड़का पैदा होगा जो तेरे देश और धर्म को तबाह करके रख देगा।
नमरूद ने बेचैन होकर हुक्म दिया कि जितने लड़के भी इस जगह पैदा हों, उन्हें क़त्ल कर दिया जाये।


• जब हज़रत इब्राहीम की मां को हमल हुआ तो वह सबके जान जाने के डर से वह घर से बाहर निकल खड़ी हुई। जब वह जंगल में एक सूखी नहर में पहुँचीं तो एक लड़के ने जन्म लिया। लड़का बहुत खूबसूरत था, मां की ममता जागी और वह उसे सीने से लगाये इधर-उधर जाने लगीं।
नहर के पास एक खोह था, लोगें की पहुँच वहाँ तक नहीं हो सकती थी। लड़के को एक कपड़े में लपेटा और रोती हुयी आंखों के साथ उसे छोड़ वह घर की तरफ़ चल पड़ीं।

अपने इस लड़के को देखने के लिए वह खोह में आर्ती, और उनको ज़िंदा देखतीं तो आंखें डबडबा पड़तीं। वह देखतीं कि हज़रत इब्राहीम अलै. एक अंगूठे से दूध और एक शहद पीते हैं और असली हिफ़ाज़त करने वाले अल्लाह की पनाह में बराबर जी रहे हैं।

ऐसी अजीब हालत को देख वह दांतों तले उंगली दबा लेतीं। फिर बच्चे को गले लगातीं, दूध पिलातीं और रोती हुई घर को वापस आ जातीं।

इस तरह जब फुर्सत पार्ती तो उनको दूध पिलाकर वापस लौट आतीं। जब कभी उनके पहुँचने में देर हो जाती तो हज़रत इब्राहीम अपने अंगूठे ही चूसकर अपना पेट भर लेते। सच तो यह है कि मां का दूध पिलाना तो सिर्फ़ एक बहाना था, वरना जिसने पैदा किया था वही उन्हें अपनी निगरानी में खिला-पिला रहा था।

हज़रत इब्ने अब्बास (रजि.) की रिवायत है कि हज़रत इब्राहीम एक दिन में इतना बढ़ते थे कि दूसरे लड़के उतना ही एक हफ़्ता में बढ़ पाते हैं और वह एक हफ़्ते में इतना बढ़ जाते कि दूसरे लड़के उतना ही एक महीना में बढ़ में पाते और एक महीना में वह इतना बढ़ जाते कि दूसरे एक साल में बढ़ पाते। इस तरह दूध पीने की मुद्दत भी गुज़र गयी।
हज़रत इब्राहीम में कुछ सूझ-बूझ पैदा हुई तो एक दिन रात में उनकी मां उन्हें देखने आयीं। हज़रत इब्राहीम ने अपनी मां से पूछा

“इस अंधेरे घर के सिवा और भी कोई दुनिया है?"

"दुश्मनों के डर से तुम्हें यहां छिपा दिया है। मां ने जवाब दिया और बताया, “यहां पर तुम्हें रखने का मक़सद इसके अलावा और कुछ नहीं है कि तुम्हारी जान बची रहे और तुम्हें अपनी निगरानी में पाला-पोसा जा सके। वैसे अल्लाह की बनायी दुनिया बहुत लम्बी-चौड़ी है।"

हज़रत इब्राहीम ने फ़रमाया

'अब तो मुझे इस खोह में आराम नहीं महसूस होता, न मैं अपने रहने लायक़ इस जगह को पाता हूँ। फिर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम खोह से बार निकल आये।

आसमान पर चमकते सितारे को देखा, बोले

'यही मेरा रब है!'

लेकिन जब वह डूब गया तो फ़रमाया, "मैं डूबने वाले को अपना रब नहीं बनाता।'

फिर जब चमकते चांद पर नज़र पड़ी और उसकी चांदनी में उन्हें मज़ा आया तो फ़रमाया

“यही मेरा रब है और इसी से मैं लौ लगाऊंगा!"

लेकिन जब वह भी डूब गया तो उसके रब होने का यक़ीन भी ख़त्म हो

गया।

जब सुबह हुई और सूरज की किरणें फैल गयीं, तब बोले

" यही मेरा ख़ुदा है, यही सबसे बड़ा है! यह तो इसकी रौशनी और गर्मी से भी ज़ाहिर है।"
लेकिन जब सूरज भी डूबने को हुआ तो हज़रत इब्राहीम फिर सोच में

पड़ गये। बोले "अलावा उस ख़ुदा के जो बे-मिसाल और बे-ज़वाल है, मैं किसी पर

यक़ीन नहीं करता।”

फिर हज़रत इब्राहीम को उनकी मां घर लाय और तमाम बातें उनके बाप को सुनायीं।

आज़र अपने बेटे को देखकर बहुत खुश हुआ करता। उसे इसकी भी

खुशी थी कि उसका बेटा बचा हुआ है।

जब हज़रत इब्राहीम ने मुर्ती को बुरा कहना शुरू किया और उनके पूजने वालों पर लानत भेजनी शुरू की तो नमरूद ने हज़रत इब्राहीम को बुलाया। हज़रत इब्राहीम निडर होकर गए और क़ायदे के मुताबिक़ नमरूद को सज्दा नहीं किया। नमरूद ने बहुत गुस्से से कहा, “तूने मुझको सज्दा क्यों नहीं किया?"

हजरत इब्राहीम कहा, "मैं परवरदिगार के सिवा किसी को सज्दा ने नहीं करता।"

नमरूद ने कहा, "तेरा परवरदिगार कौन है और क्या कहता है ?"

हज़रत इब्राहीम ने जवाब दिया, “वह सबको पैदा करनेवाला है। वही

मारता है और वही जिलाता है।"

नमरूद ने कहा, "मैं भी मार और जिला सकता हूँ, इसलिए इन सबका परवरदिगार हूँ।" फिर उसने दो ऐसे कैदियों को बुलवाया, जिन्हें सज़ा में क़त्ल करना था। उनमें से एक कैदी को उसने मरवा दिया और एक को आज़ाद कर दिया। फिर उसने कहा, "हमने भी एक को जिलाया और एक को मारा। हम हैं परवरदिगार और यही है काम हमारा।"

हज़रत इब्राहीम ने कहा, "मेरा पवरदिगार सुरज को पूरब से निकालता हैं। अगर तू सच्चा है तो पश्चिम की तरफ़ से निकाल । "
नमरूद और उसके साथी इस जवाब से चुप और हैरान रह गए। -से लोग इस मामले को देखकर मुसलमान हुए।

एक दिन हज़रत इब्राहीम ने आज़र से पूछा, “ऐ बाप, यह कैसी मूरतें हैं जिनकी तुम पूजा करते हो और रात-दिन जिनके आगे तुम 'सज्दे करते हो?"

आज़र ने कहा, "ये हमारे ख़ुदा है।"

हज़रत इब्राहीम ने फ़रमाया, “क्या तुम उनकी पूजा करते हो जिनके न कान हैं, न आंखें और जो न तुमको फायदा पहुँचा सकते हैं, न नुक़्सान।'

आज़र ने लाजवाब होकर कहा, “अगर तू हमारे ख़ुदाओं को नहीं

मानेगा तो सज़ा पाएगा और तुझ पर पत्थर बरसाए जायेंगे।'

इसके बाद हज़रत इब्राहीम ने यह पक्का इरादा कर लिया कि वह लोगों को बता देंगे कि बुतों को लोगों के अच्छे-बुरे की कुछ ख़बर नहीं और उनके पूजने में किसी को कुछ फ़ायदा नहीं।

नमरूद की क़ौम की आदत थी कि जब ईद का दिन आता तो हर आदमी अच्छा लिबास पहनता था और उम्दा उम्दा खाने पकाकर बुतों के सामने रखकर ईदगाह जाते थे और उधर से फिर कर इस खाने को अगले साल तक के लिए ज्यादा रोज़ी होने का सबब जानते थे। जब ईद का दिन आया तो सबने हज़रत इब्राहीम को साथ चलने को कहा।

हज़रत इब्राहीम ने सितारों की तरफ़ देखकर कहा, "मैं बीमार हूँ इसलिए तुम्हारे साथ नहीं चल सकता, और दिल में कहा, तुम्हारे बुतों से फ़रेब करूंगा और उनकी बेइज्जती करूंगा।"

जब सब लोग तहखाना ख़ाली करके ईदगाह पहुँचे, हज़रत इब्राहीम भी एकाएक पहुँचे और बुतों से मज़ाक़ में कहा, “ऐसा अच्छा खाना तुमने क्यों नहीं खाया ?"

वे बुत भला क्या बोलते और क्या जवाब देते। फिर तो ख़ुदा के दोस्त
इब्राहीम ने कुल्हाड़ी लेकर सबके सर उड़ा दिए, किसी के हाथ काटे और किसी का कान, मगर बड़े बुत को बचाकर कुल्हाड़ी उसी के गले में डाल दी और बुतखाने का दरवाजा बन्द करके बहुत जल्द वहाँ से निकल गए।

लोग जब ईदगाह से लौटकर तहखाने में दाखिल हुए और सभी छोटे-बड़े पुराने दस्तूर के मुताबिक़ वहाँ पहुँचे तो देखते क्या हैं कि न किसी का हाथ है, न किसी का कान। बड़ी जिल्लत की हालत में पड़े हैं, बिल्कुल मुर्दा।

उसके मुंह से निकला, "किस जालिम का यह सब किया धरा है, और किसने हमारे माबूदों के सर तोड़कर हमें दिली तकलीफ़ पहुँचाई है ?"

हजरत इब्राहीम हमेशा बुतों और बुतपरस्तों पर चोट किया करते थे और उनके शिर्क और बेईमानी को बुरा कहा करते थे। सबको यक़ीन हो गया कि यह सब हजरत इब्राहीम ने ही किया है। सबको गुस्सा आया और वह उनका कत्ल करने के लिए तैयार हो गए। पूरी क़ौम एक राह होकर नमरूद के पास पहुंची और फरियाद की कि इब्राहीम ने तहखाने की हुरमत को बर्बाद कर दिया।

नमरूद ने हज़रत इब्राहीम को बुलाने के लिए आदमी भेजा और बहुत ग़ज़ब और गुस्से से अपने पास बुलवाया।

नमरूद और पूरी क़ौम ने कहा, "ऐ इब्राहीम माबूदों के साथ यह बर्ताव किसने किया है ?" ने

हजरत इब्राहीम ने कहा, “बड़े बुत ने। तुम इज्जतवाले बड़े बुत से पूछो। वह तुमसे छिप नहीं पायेगा। वही तो तुम्हारा बड़ा माबूद है, क्या इतना भी पता न देगा।"

मुशरिक इस बात को सुनकर लाजवाब हो गए और उन्हें बड़ी शर्मिन्दगी हुई। इब्राहीम ने कहा, "तुम तो जानते हो कि यह बुत हर्गिज नहीं बोलते। यह अच्छा और बुरा अपने मुंह से कुछ नहीं कहते।"
हज़रत इब्राहीम ने फ़रमाया ऐसे माबूदों की पूजा से क्या मिलता है। जो इन बेजुबानों को पूजे वह तो बड़ा ही जाहिल है, इससे बहुत से लोग मुसलमान हुए और बहुत से लोग ईमान लाये।

नमरूद द ने जब यह मामला देखा तो हुक्म दिया कि इब्राहीम को क़ैद किया जाए। काफ़िरों ने कहा कि इब्राहीम को आग में जलाओ, इसी तरह से हमारा गुस्सा ठंडा हो सकता है।

कोह के दामन में एक सौ साठ गज़ का मकान बनाया। मुल्क की लकड़ियों को जमा करके उसमें आग लगाई। आग के शोले इतने बुलन्द हुए। कि ऊपर से परिन्दे भी उड़ने की हिम्मत न कर सकते थे और न कोई आदमी उसके नज़दीक जा सकता था कि हज़रत इब्राहीम को आग में ले जाकर डाले। फिर सब काफ़िर हैरान हुए और उनको आग में डालने की तबीरें सोचने लगे। शैतान ने सुझाया कि एक फ़लाख़न बनाओ और दो-तीन खंभे खड़े करो, झूले की तरह झुलाकर इब्राहीम को आग में डाल दो और इस तरह अपने अरमान पूरे करो।

जब हज़रत इब्राहीम को तौक़ और जंजीर में बांधकर फ़लाख़न पर बिठाया गया तो आसमान और ज़मीन के फ़रिश्तों ने रो-रोकर फ़रियाद की कि खुदावन्द, , तेरे खलील के साथ यह कैसा मामला करते हैं। हम इस जुल्म को देखकर बहुत रंजीदा हैं। हमें इजाज़त हो तो उन्हें हम अभी छुड़ा लें और इस तरह तेरा दोस्त दुश्मनों से बच जाए।

हुक्म हुआ कि अगर इब्राहीम तुमसे मदद चाहे तो बहुत बेहतर है, तुम जाकर उसका साथ दो। दो फ़रिश्ते जो हवा और पानी पर मुक़र्रर थे, हज़रत इब्राहीम के पास आए और कहा कि अगर आप हुक्म दें तो हवा और पानी इस आग को पल भर में बुझा दें। लेकिन हज़रत इब्राहीम ने इसे क़बूल नहीं किया, उनकी हालत देखकर फ़रिश्ते बहुत रंजीदा हुए। जब हज़रत इब्राहीम फ़लाख़न से बाहर हुए, जिब्रील अमीन फ़ौरन फ़िज़ा से हाजिर हुए और कहा,

'कुछ ज़रूरत हो तो कहो, मैं इस आग से इन काफ़िरों को जला सकता हूँ और तुम्हें इन शोलों से बचा लूँगा।"

हज़रत इब्राहीम ने कहा, “मुझे तुमसे कुछ काम नहीं। जो ख़ुदा की

मर्ज़ी है वह पूरी होकर रहेगी।" जिब्रील ने कहा, "फिर ख़ुदा ही से सवाल करो और अपनी मुसीबत

उससे बयान करो।"

हज़रत इब्राहीम ने फ़रमाया कि वह ख़ुदा जानता है, मेरे कहने से क्या हासिल। इस तरह जब ख़ुदा-ए-बेनियाज़ ने देखा कि इब्राहीम तवक्कुल की राह में क़ायम है तो फ़रमाया :

'या नारू कूनी बरदंव व सलामन अला इब्रहीम'.

"ऐ आग, तू इब्राहीम के लिए ठंडी हो जा और सलामती बन जा।"

हज़रत इब्ने अब्बास से नक़ल है कि कलामे इलाही में लफ़्ज़ 'सलाम' न होता तो मारे ठंडक के इब्राहीम को चैन न मिलता।

फ़रिश्तों ने हज़रत इब्राहीम का बाज़ू पकड़कर निहायत आराम से ज़मीन पर बिठाया ही था कि उसी वक़्त बहिश्त के रिज़वान ने ठाठदार कपड़े लाकर पहनाए और उनके आसपास बीस-बीस गज़ तक फूल, सब्ज़े, कलियों और ख़ुश्बूदार फूलों से अजीब बाग़ बना दिया। एक मीठा सोता भी वहाँ जारी हो गया। हज़रत इब्राहीम पर ख़ुदा का बड़ा फ़ज़्ल हुआ कि लज़ीज़ खाना सुबह-शाम पहुँचाया करे, ताकि मेरा प्यारा खुशी और बेफ़िक्री के साथ खाए।

जब सात रोज़ इस तरह गुज़र गए तो नमरूदियों ने चाहा कि देखें कि आग बुझी है या नहीं। नमरूद भी एक ऊंचे महल पर चढ़कर हमेशा देखता रहता था। उसे डर था कि कहीं इब्राहीम ज़िंदा न रह जाए इसलिए कि अगर वह सही-सलामत आएगा तो मुझ पर और मेरे मुल्क पर बड़ी ही आफ़त लाएगा। जब कभी वह अपने दिल की बात अपने मुसाहिबों के सामने कहता तो फिर हरेक की तसल्ली के लिए साथ ही यह भी कह देता कि इंसान क्या है कि जलकर राख न हो जाए, इस आग में तो अगर संगखारा भी डाल दिया जाये तो वह भी पिघलकर बह जायेगा।
एक दिन नमरूद ने बहुत ग़ौर से अपने महल से देखा। इब्राहीम के चारों तरफ़ तो गुलो-रेहान हैं और आग की लपटों की बजाय बाग़ दिखाई देता है। और मीठे पानी का सोता बह रहा है और हर दम वहाँ ऐशो- -आराम ही है, तो वह बहुत हैरान और परेशान हुआ।

बोला, “ऐ इब्राहीम, तू ऐसी तेज़ आग से किस तरह बच सका ? और यह बाग़ और नेमत किसने फ़राहम किए।"

हज़रत इब्राहीम ने फ़रमाया "यह तो बेमिसाल ख़ुदा की क़ुदरत का छोटा-सा करिश्मा है। उसका फ़ज़्ल और इनायत हो तो ऐसा काम नामुम्किन नहीं।"

नमरूद बोला "जिसकी क़ुदरत की यह अदना निशानी है, वह सच में

बड़ा परवरदिगार है। "

हज़रत इब्राहीम राख के पहाड़ों से निकलकर बाहर तशरीफ़ लाए और नए सिरे से नमरूद को नसीहत करने लगे। नमरूद ने थोड़े दिन की मुहलत मांगी और मामले पर सोचने का वादा किया। उसने हामान से जो उसका वज़ीर था सलाह ली और ईमान लाने का इरादा जाहिर किया।

उस मलऊन हामान ने कहा, “इतने ज़माने तह तो आपने ख़ुदाई की,

अब बंदगी इख़्तियार करेंगे और दुनिया भर में अपने को रुस्वा करेंगे।'

जब हज़रत इब्राहीम ने मोहलत गुज़र जाने के बाद ईमान लाने की मांग की तो नमरूद ने निहायत चापलूसी और नरमी से कहा, 'ईमान लाना तो मेरे लिए बहुत मुश्किल है, मगर हाँ तेरे परवरदिगार के लिए एक बड़ी क़ुरबानी देने के लिए मैं तैयार हूँ।'

हजरत इब्राहीम ने फ़रमाया, दरबार क़बूल नहीं होती।" में "बग़ैर ईमान के कोई क़ुरबानी ख़ुदा के

नमरूद ने चार हजार गायें और बहुत सी बकरियों और ऊंटों को एक बड़े मैदान में क़ुर्बान किया, लेकिन हामान की शैतानी की वजह से उसका ठिकाना दोज़ख ही हुआ।
नमरूद की तबाही

हज़रत इब्राहीम ने नमरूद से कहा कि तू बुरे काम छोड़ दे और पशेमान होकर ख़ुदा के आगे आजा। ख़ुदा-ए-तआला ने तुझे चार सौ साल से बादशाहत दे रखी है और इसी तरह उसने मुझे ऐसे मोजज़े दिए जो दीन हक़ पर गवाह है और तू है कि अब तक अपने कुफ्र से बाज़ न आया और अपनी नादानी और हठधर्मी से ख़ुदाई का दावा किए चला जा रहा है। जान ले यह ख़ुदा का लश्कर इतना ज्यादा है कि अन्दाज़ा नहीं कर सकते और तुझे तो ग़ारत करने के लिए एक अदना लश्कर काफ़ी है।

नमरूद ने कहा मैं नहीं समझता कि ज़मीन पर मेरे सिवा कोई दूसरा बादशाह है और मेरी बारगाह के सिवा कोई दूसरी बारगाह है। अगर आसमानी बादशाह की फ़ौज है तो उससे कहो कि वह मुझ पर भेजे और फिर मेरी लड़ाई और ताक़त का तमाशा देखे।

हज़रत इब्राहीम ने दुआ की।

हज़रत जिबील नाज़िल हुए और कहा कि नमरूद से कहो कि हमारी फ़ौज आ पहुँची, तू तैयार हो जा। और अपनी फ़ौज लेकर मैदान में जंग कर।

तीन रोज़ की मोहलत में नमरूद की फ़ौज बुला ली गई। एक मैदान में सब जमा हुए। चौथे रोज़ नमरूद की फ़ौज के मुक़ाबले में तन्हा हज़रत इब्राहीम सामने आए। उन्हें अकेला देखकर लोगों ने कहा, "इब्राहीम, वह फ़ौजे आसमानी कहां है ? अब तुझ पर आफ़त आने में कुछ भी देर नहीं।"

अभी बातचीत हो ही रही थी कि एकाएक मच्छरों की फ़ौज ज़ाहिर हुई जिसकी वजह से सूरज की रौशनी छिप-सी गई। नमरूद घबरा गया। लश्कर पर भी हैरत तारी हो गई। नमरूद ने हुक्म दिया, 'नक़्क़ार बजाकर मच्छरों को भगा दें।'

जब मच्छरों की आवाज़ कानों में आई, लोगों के होश गुम हो गए।
तमाम फ़ौज घबरा गई। एक गूंज थी, एक शोर था जो उभरा आ रहा था। छोटा था या बड़ा हरेक हैबते-इलाही से डर गया। एक-एक आदमी पर लाखों मच्छर पिल पड़े। मच्छर क्या थे एक काली बला थी जो सर से पांव तक चिमट रही थी।

लोगों के बदन पर गोश्त और ख़ून तक नहीं छोड़ रही थी। हज़ारों आदमी और जानवर तबाह हुए। नमरूद अपने महल में भागकर औरतों में जा छिपा। इतने में एक लंगड़ा मच्छर आया जिसे नमरूद ने अपनी औरतों को दिखाया भी। मच्छर तेज़ी से नाक की राह से नमरूद के दिमाग़ तक जा पहुँचा और अपनी सूंड को उसके भेजे में चुभा दिया। नमरूद का सोना और आराम करना सब रुख्सत हो गया। वह दिन-रात अपना सर पीटता रहता, जब तक लोग उसके सर को कूटते, कुछ दर्द में कमी महसूस होती और बग़ैर कूटे चैन न मिला। जो भी उसकी मजूलिस में आता तो ज़मीनबोसी के बदले उसके सर पर धौल लगाता। इस तरह नमरूद को ख़ुदा के ग़ज़ब ने जकड़ लिया। चालीस दिन के बाद वह इसी दर्द की वजह से हलाक हुआ।

इसके बाद हज़रत इब्राहीम ने ख़ुदा के हुक्म से नुल्क शाम की तरफ़ हिजरत की। लोगों की नाफ़रमानी की वजह से उन्हें यह हिजरत करनी पड़ी। मिस्र में उन्होंने हज़रत सारा को अपने साथ लिया। लोगों ने मिस्र के हाकिम को खबर दी कि हज़रत सारा बहुत हसीन व जमील हैं और अपने हुस्न व जमाल में यक्ता और बेमिसाल हैं। मिस्र के बादशाह ने हज़रत इब्राहीम से पूछा कि मैं इस औरत को हासिल करना चाहता हूँ तेरा इस औरत से क्या रिश्ता है।

हज़रत इब्राहीम ने सोचा कि अगर मैं कहता हूँ कि यह मेरी बीवी है तो वह मुझे मारना चाहेगा। इसलिए हज़रत इब्राहीम ने फ़रमाया, "यह मेरी बहन है (दीन के रिश्ते से) "। इस तरह उनकी जान बची।

ने जब उस मरदूद ने हज़रत सारा को अपने सामने बुलाया तो उन्हें देखते ही उसके होश गुम हो गये। उस बेअदब ने उनकी तरफ़ हाथ बढ़ाना चाहा
तो हज़रत सारा की दुआ से उसके दोनों हाथ शल हो गये और दर्द की वजह से उसका सारा जिस्म बेकल हो गया। उसने कहा, "ऐ औरत मुझ पर यह क्या जादू कर दिया।"

हज़रत सारा ने फ़रमाया, “तेरी बदनीयती की वजह से ख़ुदा ने तुझे सज़ा दी है ?"

उस मलऊन ने कहा, “अगर मैं तेरी दुआ से तंदुरुस्त हो गया तो

हरगिज़ तुझ पर बदनीयती से हाथ न डालूंगा।"

हज़रत सारा ने ख़ुदा की बारगाह में दुआ की। ख़ुदा ने उसको अच्छा कर दिया, लेकिन उसकी नीयत फिर ख़राब हो गई। ख़ुदा ने उसके दोनों हाथ अपाहिज कर दिए। वह बड़ी मिन्नत से गिड़गिड़ाने लगा। हज़रत सारा की दुआ से उसकी तकलीफ़ दूर हुई। नमरूद की नीयत तीन बार ख़राब हुई और उसके हाथ शलय हुए मगर हज़रत सारा की दुआ से उसको तंदुरुस्ती हासिल हुई। आखिर में सच्चे दिल से वह बुराई से दस्तबरदार हो गया और हाजरा नामी खातून को नज़ किया। यही हज़रत हाजरा हैं जिनसे हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम पैदा हुए। वहाँ से हज़रत इब्राहीम ने मुल्क शाम का इरादा किया और फ़लिस्तीन में दमिश्क़ के इलाक़े में क़ियाम फ़रमाया। 

मेरे भाइयों आपको ये हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का वाक्य कैसा लगा हमे कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं फिर मिलते

इदरीस अलैहिस्सलाम

 क़ाबील की औलाद शैतान के बहकाने से गुमराह हो गयी और कुफ़ व शिर्क में मुब्तला हुई, यहां तक कि वे हरामकारी और बेशर्मी के कामों के शिकार हो गये तो अल्लाह तआला ने हज़रत इद्रीस को नवी बनाकर भेजा।

हज़रत इद्रीस की बातों को बहुत-से भले लोगों ने मान लिया और वे सीधे रास्ते पर ज़िन्दगी गुज़ारने लगे, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिनके दिल स्याह हो चुके थे, कुन व शिर्क और बद अख़लाक़ी उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा बन गयी थी, उन्होंने हज़रत इद्रीस की बातों को ठुकरा दिया।

हज़रत इद्रीस का पैग़ाम था तौहीद, इंसाफ़ और अच्छा अख़लाक़।उनकी कोशिश से एक अच्छा समाज पैदा हो गया। इसे देखने के लिए। हज़रत इज़राईल इंसानी शक्ल में और अल्लाह की इजाज़त लेकर ज़मीन पर आये और उनकी सोहबत कुछ दिन गुज़ारा हज़रत इद्रीस अलैहिस्सलाम में ने देखा कि यह आदमी न खाता है, न पीता है ख़्याल किया, शायद यह फ़रिश्ता है। जब इद्रीस अलै. को मालूम हुआ कि यह मौत का फ़रिश्ता हज़रत इज़राईल हैं, तो उन्होंने कहा कि मैं चाहता हूँ तुम मुझे शर्बते मौत चखाओ। हज़रत इज़राईल ने अल्लाह की इजाज़त से उनकी रूह को क़ब्ज़ कर लिया और उनकी पाक जान को कल्ब में डाल दिया।

हज़रत इद्रीस ने कहा कि मुझे जन्नत-दोज़ख देखने का बहुत शौक़ है। हज़रत इज़राईल ने ख़ुदा के हुक्म से उनको अपने परों पर बिठाकर सबसे पहले दोज़ख़ की सैर करायी, फिर जन्नत को दिखाया।

हज़रत इद्रीस जब जन्नत की नेमतों, हूरों और दूसरी खूबसूरत चीज़ों को देख चुके तो इज़राईल ने कहा, अब मेरे साथ जन्नत से बाहर चलिए और इस मकान से निकलिए हज़रत इद्रीस अल्लाह के कानून को ही खूब जानते  ही थे, पेड़ का एक तना पकड़ कर खड़े हो गये, फ़र्माया कि जब तक पैदा करनेवाला जन्नत व दोज़ख के इस इम्तिहान से मुझको न निकालेगा, मैं हरगिज़ बाहर न जाऊंगा

अल्लाह तआला ने इन दोनों के क़िस्से के फैसले के लिए एक फ़रिश्ता भेजा। पहले हज़रत इज़राईल ने पूरी हालत बतायी फिर हज़रत इदरीस ने जवाब दिया कि मैंने नफ़्स के तक़ाज़े के तौर पर मौत के कड़वे ज़हरीले शर्बत का मज़ा चखा, दोज़ख़ लाया गया, फिर सबसे बड़े रहीम ख़ुदा के हुक्म के मुताबिक़ जन्नत में आया। अब मैं इससे सिर्फ़ इज़राईल के कहने से निकलने वाला नहीं, हाँ ख़ुदा का हुक्म होगा, तो दूसरी बात है। उसी वक़्त ग़ैब से आवाज़ आयी कि हज़रत इद्रीस हक़ पर हैं।

फिर हज़रत इद्रीस जन्नत से बाहर आये और छठे आसमान पर फ़रिश्तों के साथ इबादत में लग गये और वहाँ मौजूद हैं।• हज़रत इद्रीस बहुत खूबसूरत थे, गेहुँआ रंग था, क़द मुनासिब था, अक्सर खामोश रहा करते चलते तो नज़र क़दमों पर पड़ती।

हज़रत इद्रीस ने ही फ़रमाया है कि नेकियों का सर तीन चीजें हैं

1. गुस्से के वक़्त सब्र से काम लेना,

2. तंगी में बख़्शिश करना, और

3. काबू पाने पर माफ़ करना।

आपने फ़रमाया कि अक्लमंद वह आदमी है कि तीन क़िस्म के आदमियों से हल्कापन न करे

1. बादशाहों से,

2. आलिमों से,

3. दोस्तों से।

इसलिए कि बादशाहों की गुस्ताख़ी मीठे ऐश की कड़वाहट की तरह है और आलिमों की हिकारत (नीची नज़र से देखना) से दीन का नुक्सान और दोस्तों का हल्कापन बे-मरव्वती है जो नफ़रत करने की चीज़ है।

आपने फ़रमाया कि आदमी को चाहिए कि मुसीबत में सब्र करे और बुलंद दर्जा पाने पर नर्मी का रवैया अपनाये।

Hajrat hud alaihissalam

 अल्लाह तआला ने हज़रत हूद अलैहिस्सलाम को क़ौमे आद की तरफ़ भेजा। उस क़ौम के लोग लम्बे क़द और चौड़े जिस्म वाले थे। उनमें का सबसे लम्बा 100 गज़ का और ठेंगना 60 गज़ का आदमी था। बुतपरस्ती का चलन बहुत ज़ोरों पर था। ख़ुदा को भुला बैठे थे। पत्थर काट-काट कर पहाड़ों में खूबसूरत से खूबसूरत मकान बनाते थे, लेकिन पत्थर के काम में ये जितने माहिर थे, उतने ही पत्थर दिल भी थे।


फिर भी उनमें एक गिरोह भले लोगों का भी था, जो अल्लाह पर ईमान लाया था, लेकिन ज़ालिमों के डर से अपना ईमान छिपाये हुए था। जब हज़रत हूद अलैहिस्सलाम की वाज़ व नसीहत खुलकर होने लगीं, तो ये भले लोग हज़रत हूद का पूरा साथ देने लगे।


हज़रत हूद का पैग़ाम ज्यों-ज्यों फैलता गया, काफ़िरों की मुखालफ़त भी तेज़ हो गयी। इन भले लोगों ने इसकी इत्तिला हज़रत हूद को दे दी। हज़रत हूद ने अल्लाह के हुज़ूर इन दुश्मनों के लिए बद-दुआ की। चुनांचे बरसात नहीं हुई, बाग़ और खेती सब सूखने लगी। यह अकाल सात वर्ष तक चलता रहा, लोगों का बुरा हाल हो गया। भूखे-प्यासे मरने लगे।


मौक़ा मुनासिब समझ कर हज़रत हूद ने उन्हें समझाना शुरू किया और फ़रमाया कि ईमान लाओ, अपने आपको दुनिया की इन परेशानियों से बचाओ। ये सब परेशानियां तुम्हारे कुफ़्र की वजह से तुम पर आयी हैं।


लेकिन काफ़िरों ने हज़रत हृद की नसीहतों पर कान न धरा, अपने कुन पर डटे रहे और यही कहते रहे, हम तेरे कहने से बुतों को न छोड़ेंगे और अपने बाप-दादाओं के दीन से मुंह न मोड़ेंगे।


उस ज़माने का क़ायदा था, जिसे किसी बड़ी मुश्किल का सामना होता था तो वह मक्का में काबे में जाकर दुआ करता था जो क़बूल हो जाती। उन दिनों आद क़ौम के अलावा अमालका की क़ौम मक्का में रहती थी, जो अपने को मक्का का सरदार कहती थी। जब आद क़ौम के लोग इन परेशानियों के शिकार हुए तो उनके सत्तर सरदार वहाँ जाने को तैयार हो गये कि वहाँ जाकर बारिश की दुआ करें।


ये लोग जब लम्बा सफ़र तै करके मक्का पहुँचे तो माविया बिन बक्र के घर में उतरे। उसने इन सबकी खाने और शराब की ऐसी ज़ोरदार दावत की और नाच-गाने की ऐसी महफिल जमायी कि ये अपने आने का मक़सद ही भूल गये।


बहुत दिनों के बाद उन्हें अपनी क़ौम की याद आयी और अपने आप पर रात दिन लानत-मलामत करते हुए वे सब दुआ में लग गये और कुर्बानियां चढ़ानी शुरू कीं। लेकिन फिर भी कोई नतीजा न निकला।


इन सरदारों में मुर्सद बिन मादान छिपा हुआ मुसलमान था, हज़रत हूद पर उसका पूरा ईमान था। उसने खुलकर कह दिया कि जब तक तुम सब हज़रत की बातों को नहीं मानोगे, अपने मक़सद को नहीं हासिल कर सकोगे।


इन लोगों ने उसका भी बाईकाट कर दिया और अपने तौर पर दुआ करते रहे।


इतने में तीन टुकड़े बादल के दिखायी दिये- सफ़ेद, काला, लाल और उन बादलों में से आवाज़ आयी कि इनमें से कोई एक टुकड़ा इख़्तियार कर लो, इसके बाद ख़ुदा के हुक्म का इंतिज़ार करो।


इन लोगों ने काला बादल, पानी के बादल का रूप समझकर अपना बना लिया कि आवाज़ आयी कि तुम्हें अब काली राख बाक़ी न छोड़ेगी, बल्कि अब आद क़ौम धूल-धूल उड़ जायेगी।


अल्लाह के हुक्म से वह काला बादल आद की क़ौम की तरफ़ बढ़ा। लोग काला बादल देखकर बहुत खुश हुए, लेकिन उनके मन में यह विचार आ ही न सका कि यह अज़ाब का बादल है।


हज़रत हूद के ये इंकारी हज़रत हूद का मज़ाक उड़ाने के लिए कहा करते थे- बड़ा सच्चा बनता है तो ले आ न अल्लाह का अज़ाब! हम तेरी बात कहां मान रहे हैं। लेकिन उन्हें क्या ख़बर थी कि जिस हक़ीक़त को वे मज़ाक़ समझ रहे हैं, वह हक़ीक़त बनकर सामने आ गयी है।


जब हज़रत हूद ने देखा कि अज़ाब आ गया तो अल्लाह ही के हुक्म से अपने चार हज़ार ईमानवालों को साथ लिया और बाहर निकलकर उनसे कहा कि यह दायरा जो मैंने उंगली से तुम्हारे चारों तरफ़ खींच दिया है और तुम्हें ख़ुदा ही के हुक्म से उसमें बिठा रहा हूँ ताकि तुम इस अज़ाब से बचे रहो।


देखते-देखते काला बादल आंधी-तूफ़ान में बदल गया । क़ौम के लोग घबरा गये। तुफ़ान इतना ज़बरदस्त था कि इंसान तक हवाओं में उड़ उड़कर काफ़ी दूरी पर पटक-पटक उठते, हड्डियां चूर-चूर हो जातीं। लोग घबराकर घरों की तरफ़ भागे, ताकि सर छिपा सकें और तूफ़ान की इस तेज़ी से अपने को बचा सकें। जब मकान और घर गिरने-ढहने लगे तो दबदबकर लोग मरने लगे। सात दिन और रात आंधी-तूफ़ान का यह सिलसिला चला । तबाही व बर्बादी का नंगा नाच होता रहा और आद क़ौम अल्लाह के अज़ाब का शिकार होकर रह गयी।


हां, हज़रत हूद और उनके साथी इससे बचे रहे। जब अज़ाब का सिलसिला ख़त्म हुआ तो हूद और उनके साथियों ने एक तरफ़ को अपने रहने को मकान तैयार किये और फिर से रहने-सहने लगे।


हज़रत हूद चार सौ चौसठ साल के हुए तो उनका इंतिक़ाल हो गया इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन. शद्दाद का हाले


तारीख लिखने वालों ने शद्दाद का जिक्र हज़रत हूद के बयान के बाद किया है, इसलिए कि उसका ताल्लुक़ भी आद क़ौम ही से था, ताकि ईमान वाले उससे नसीहत हासिल करें।।


आद क़ौम में शद्दाद और शदीद दो भाई थे, जो बड़े दौलतमंद बादशाह थे। शाम (सीरिया) मुल्क में इनकी बादशाही मानी हुई बादशाही थी।


शदीद और उसके लोग, अगरचे शिर्क़ में मुब्तला थे और खराब


अक़ीदा रखते थे, लेकिन उसके इंसाफ़ से शेर और बकरी एक जगह पानी


पीते थे।


कहा जाता है कि उसकी अदालत में दो आदमी आये। इन दोनों में एक ने बताया कि मैंने इस आदमी से ज़मीन का क़ितआ ख़रीदा और क़ीमत देकर उसपर कब्जा कर लिया। फिर मैंने उस जमीन में एक ख़ज़ाना पाया जो मैं इसको देना चाहता हूँ। इसलिए कि मैंने सिर्फ़ ज़मीन खरीदी है, खज़ाना नहीं ख़रीदा है, लेकिन यह लेता नहीं।


दूसरे ने मैंने तो ज़मीन बेच दी, अब ज़मीन और जो कुछ इसमें है, कहा, सब इसका है। इसलिए खज़ाना भी इसी का है, मैं उसे क्यों लूं? लेकिन इसकी समझ में यह छोटी-सी बात नहीं आती।


कैसा था यह अजीब व ग़रीब मुक़द्दमा !


अदालत ने पूछा, यह बताओ, तुम दोनों के पास कोई औलाद है ? एक ने कहा, एक लड़का है, दूसरे ने कहा, एक लड़की है। ने


अदालत ने फ़ैसला सुनाया, तुम दोनों को आपस में ब्याह दो और यह खजाना इन दोनों के हवाले कर दो।


ऐसा था वह इंसाफ़पसंद राजा!हजरत हूढ़ अलै. ने उससे भी ईमान लाने की बात कही थी, पर वह ईमान न लाया और अपने बाप-दादा के धर्म शिर्क पर ही मरा।


शदीद के बाद शद्दाद गद्दी पर बैठा। हज़रत हूद अलै. ने उससे भी ईमान लाने की बात कही।


बोला, अगर मैंने


तुम्हारा दीन क़बूल कर लिया तो उसका फ़ायदा क्या


हजरत हूद ने फ़रमाया, अल्लाह तुम्हें इसके अज के तौर पर जन्नत अता फरमायेगा, उसकी रहमतें तुम पर नाजिल होंगी।


शद्दाद बोला, यह सब कुछ नहीं। मैं तो खुद अपनी जन्नत बनाऊंगा


और दिन-रात वहाँ ऐश मनाऊंगा। फिर शद्दाद ने जन्नत बनाने का प्रोग्राम बना लिया। पूरे मुल्क से सोना-चांदी, हीरे-जवाहर, मुश्क अंबर और मरवारीद के ढेर लग गये। एक खूबसूरत जगह भी तलाश कर ली गयी माहिर कारीगर जमा किये गये और एक मजबूत इमारत की नींव डल दी गयी। एक गरीब की उम्मीदों से भी बड़ी लम्बाई, करीमों की हिम्मत से भी ज्यादा बुलंदी वाली दीवारें तैयार होने लगी-च-इंतिहा खूबसूरत और साफ़-सुथरी इमारत तैयार होने लगी कि आज तक ऐसी इमारत कभी तैयार न हुई।


दीवारों में सोने-चांदी की ईंटें चुनी गयी थीं, छत उस की सोने के पत्तों से सजायी गयी थी, स्तून उसके बिल्लौरी थे और हर जगह बड़े सुन्दर ढंग से जोड़े गये थे। उनकी नहरों में रेत के बजाय अनमोल मोती बिछाये गये थे, उसके पेड़ों में मुश्क और अंबर भरवा दिया था। जिस वक्त खुश्क हवा इन पेड़ों से होकर गुजरती थी, तो रहने वालों के दिमाग़ ख़ुश्बू से भर जाते थे। उसकी जमीन को मिट्टी से पाटने के बजाय मुश्क व अंबर से बिछवाया था। के बारह हजार कंगूरे उसके महलों के चारों तरफ़ बनवाये गए थे। कंगूरों को सुर्ख सोनों से सजाया गया था। महल में खूबसूरत खूबसूरत लड़कियों को से  लाकर ठहराया।


यह मनमोहक बाग़ पांच सौ वर्ष में तैयार हुआ, पूरे मुल्क के जवाहरात इसमें लग गये।


जब महल बनकर तैयार हो गया, तब शद्दाद को इसकी ख़बर दी गयी। शद्दाद एक भारी फ़ौज ले कर चला कि वह उस जन्नत को देखे और वहाँ क़ियाम करे।


अभी वह एक फर्लांग ही चला था कि वहीं डेरा डाल दिया। इरादा था


कि अब अगले दिन सफ़र शुरू होगा।


इसी बीच उसे एक हिरन नजर आया। उसके पांव सोने के थे, सींग सोने के और आखें याकूत की थीं। शद्दाद उसे देख कर हैरान रह गया, अकेला ही से निकल गया घोड़ा दौड़ा कर उसके पीछे चल पड़ा। जब लश्कर बहुत दूर तो उसे एक भयानक क़िस्म का सवार नजर आया। उसने पूछा


'क्या इस इमारत बनाने से तुझे अमान मिल जायेगी या तू इसमें रहकर


हमेशा-हमेशा के लिए ऐश कर करना चाहता है ?


शद्दाद कांप गया, पूछा तू कौन है ?


बोला, मैं मलकुल मौत (मौत का फ़रिश्ता ) हूँ।


शद्दाद ने गिड़गिड़ाकर उससे अर्ज किया, मुझे एक नज़र अपनी उस जन्नत को देख लेने दे, फिर उसके तुरंत बाद ही मेरी जान निकाल लेना। बताया, यह तो रब का हुक्म है, मैं तो एक लम्हा भी मुहलत देने से


मजबूर हूँ।


यह कह कर उसने उसकी जान निकाल ली, जिस्म बेजान होकर रह गया तमन्ना दिल की दिल में धरी रह गयी।


तारीख़ की किताबों में लिखा है कि एक बार अल्लाह की ओर से इज़राईल से पूछा गया कि तू मुद्दतों से लोगों की रूह क़ब्ज़ करता है, बता क्या कभी तूने किसी पर रहम भी किया है और उसकी जान निकालते वक़्त तुझे दया भी आयी है ?


बोला, खुदावंद! मैं तो सब पर दया करता हूँ। फ़रमाया, किस पर ज्यादा दया की।


तब इज़राईल ने बताया कि एक दिन एक कश्ती को मैंने आप ही के हुक्म से तोड़ दिया था और मौज़ों में घिरकर वह कश्ती हमेशा के लिए तबाह हो गयी, उसपर सवार तमाम लोग भी खत्म हो गये, हां सिर्फ़ एक औरत बचा ली गयी, जिसके पेट में बच्चा था।


औरत को फ़रिश्तों ने एक जजीरे में पहुँचा दिया, वहीं उसने एक लड़का जन्म दिया। आपका हुक्म हुआ कि उस औरत की भी जान निकाल लो और लड़के को वहाँ उस औरत के पहलू में डाल दो। उस वक़्त मेरी आंखों से आंसू निकल आये कि इस लड़के का क्या होगा, यह तो तड़पकर मर जायेगा या इसे दरिंदे खा जायेंगे। ख़ुदावंदा ! यही सोचकर मैं रो दिया। मुझे एक तो उस बच्चे पर दया आयी थी और दूसरे अब आयी, जब शद्दाद की रूह क़ब्ज़ करने का हुक्म दिया गया कि उस बेचारे ने कई सौ साल में तो इमारत बनवायी थी, लेकिन वह उसे एक नज़र भी न देख सका और उसकी हसरतें दिल की दिल ही में रह गयीं।


अल्लाह ने फ़रमाया कि यह शद्दाद वही लड़का है जिसपर तूने दया की थी। मैंने उसकी मां के मरने के बाद सूरज और हवा को हुक्म कर दिया था कि इसे अपनी गर्मी और सर्दी से मत सताना, बल्कि फूलों के पत्ते उड़ाकर उसके वास्ते फ़र्श बनाओ। फिर उसके दोनों अंगूठों से दूध और शहद की नहर बहायी। इस तरह मैंने उसकी जान बचायी, पाला-पोसा, यहां तक कि उसे हुकूमत का मालिक बना दिया- इतना सब करने के बाद भी मेरा नाशुक्री करने लगा, बल्कि खुद ख़ुदा बनने का दावा कर बैठा। उस पर तो ग़ज़ब नामिल होना ही चाहिए था।


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नूह अलैहिस्सलाम

जब हज़रत इद्रीस अलैहिस्सलाम ने आसमान पर क़ियाम किया तो दुनिया में फिर गुमराही और ना फ़रमानी भर गयी, गुनाह के काम ख़ूब होने लगे। लोगों को सीधे-सच्चे रास्ते पर लाने के लिए अल्लाह तआला ने हज़रत नूह अलै. को नबी बनाकर भेजा।

हज़रत नूह ने नौ सौ पचास वर्ष की उम्र पायी। अस्सी वर्ष की उम्र में अल्लाह की वह्य आने लगी।हज़रत नूह बराबर भलाई की बात फैलाने और बुराई को मिटाने की कोशिशें करने लगे, लेकिन उनकी क़ौम के सरदार तो ऐश में लगे थे, उन्हें इन बातों से क्या लेना-देना हज़रत नूह अल्लाह तआला से उनकी हिदायत की दुआ भी करते, लेकिन उन ज़ालिमों ने कुछ मान कर न दिया, कुफ़ और इंकार की रीति पर डटे रहे।

हज़रत नूह ने बहुत समझाने की कोशिश की, काफ़ी मेहनत की, लेकिन पूरी उम्र की मेहनतों के नतीजे में अस्सी आदमियों के अलावा किसी ने इस्लाम क़बूल न किया।

हज़रत इब्ने अब्बास (रजि.) से रिवायत है, फ़रमाया कि किसी पैग़म्बर ने अपनी क़ौम की तरफ़ से इतनी तक्लीफें न उठायीं, जितनी हज़रत नूह अलै. को उठानी पड़ीं। वे तो हज़रत नूह को हमेशा धमकी देते रहे कि तुम इन बातों से बाज़ आ जाओ और हमारे बुतों को बुरा-भला कहने से बचो, वरना हम तुम्हें परेशान कर डालेंगे। चुनांचे वे उन्हें अच्छी बातें सुनाने पर भरी मज्लिस में मारते, यहां तक कि वे बेहोश हो जाते और उनके लड़के उनको वहाँ से उठाकर ले आते।

उनके दुश्मन मरते वक़्त अपने बेटों को वसीयत किया करते और कुफ्र पर जमे रहने की हिदायत देते हुए कहते थे-"बेटो! हरगिज़ अपने बाप-दादा के दीन से फिरना नहीं, नूह की बात तो कभी न मानना। जहां तक हो सके उन्हें दुख और तकलीफ़ ह देते रहना, चाहे ठिकाना जहन्नम ही में क्यों न बने।"

जब ऐसे ही संगीन हालात में सात सदियां गुज़र गयीं और हज़रत नूह अलै. तंग आकर ना उम्मीद हो गये तो अल्लासह ने वह्य नाज़िल की। हज़रत नूह अलै. को इससे बड़ी ढाढ़स हुई। अल्लाह ने उनसे फ़रमाया था, ऐ नूह ! तुम दिल तंग मत होना, न इन ज़ालिमों से अब कोई उम्मीद रखो। जो ईमान ले आये, ले आये; बाक़ी ईमान नहीं लायेंगे। इनके मुक़द्दर ही में जहन्नम लिख गयी है।हज़रत नूह अलै. ने अर्ज़ किया, खुदावंद! इनकी नस्ल में से कोई ईमान लायेगा या नहीं। हुक्म हुआ, तो ईमान न लायेंगे, इनका दिल तो पत्थर हो ये चुका है।

फिर भी हज़रत नूह को अपनी क़ौम से जो लगाव था, उसकी बुनियाद पर उनको एक ओर समझाया और कहा, ऐलोगो, ईमान न लाओगे तो अब यह समझो कि अब अज़ाबे इलाही आप रहा है।

लेकिन इस बार भी क़ौम के सरदारों ने उसी तरह जवाब दिया और कहा, हम वुद्द, सुवाअ, यगूस और ( यअस (जो हमारे बुत हैं) की पूजा कभी न छोड़ेंगे और अगर तू सच्चा ही है तो अज़ाब ले आ, हमें उसका कोई डर नहीं।

हज़रत नूह यह जवाब सुनकर मायूस हो गये, बड़े ही ग़म के साथ अल्लाह से गिड़गिड़ाकर अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह ! जब मैं अपनी क़ौमवालों को इस्लाम की तरफ़ बुलाता हूँ, ताकि वे अपनी जिंदगियां बना-संवार सकें, तो वे मुझे सुन नहीं देते, कानों में उंगलियां ठूंस लेते हैं, बे-तवज्जोही के लिए अपने ऊपर कपड़े डाल लेते हैं, अपने कुफ़्र पर जमे रहते हैं, अब मैं क्या करूँ? बहुत मजबूर हो गया हूँ, अब तेरा अज़ाब आ ही जाना चाहिए, इन्हें तबाह कर दे, इनका सब कुछ खत्म कर दे।

हज़रत नूह की दुआ से फिर उस क़ौम पर अकाल पड़ गया, यहां तक कि उनकी नस्ल की बढ़ोत्तरी का सिलसिला ही बंद हो गया।

इसके बाद अल्लाह के हुक्म से हज़रत जिब्रील ने साज पेड़ बोने का हुक्म दिया और बीस वर्ष में उसे काफ़ी मज़बूत कर दिया। फिर अल्लाह ही के फ़रमान पर हज़रत नूह ने उसकी लकड़ी से कश्ती बनानी शुरू कर दी ।

काफ़िर पहले तो नूह अलै. को सताते रहे। जब कश्ती बनने लगी, ये

मज़ाक़ बनाने लगे। कहते

'ऐ नूह! अब तुम नबी के दर्जे को पहुँचने के बाद, बढ़ई कब से हो

गये ? क्या पैग़म्बरी के कार्यों से थक गए? कश्ती तो बनाते हो, पर पानी कहां है जिसमें यह कश्ती चलेगी, क्या यह खुश्की पर चलेगी! हज़रत नूह कहते- 'तुम अपने अमल के नतीजों से ग़ाफ़िल हो,

आक़िबत में तुम पर क्या बीतेगी, इसे समझ नहीं रहे हो, इसलिए तुम क्या

समझो इन बातों को ?

फिर हज़रत नूह ने कश्ती तैयार कर ली, बहुत मज़बूत करती। तख़्तों के हर जोड़ पर क़ीर का तेल लगा दिया। अल्लाह ही के हुक्म से शमशाद के तख़्तों का ताबूत हज़रत आदम की हड्डियों के लिए बानाया। फिर ह जिब्रील ने हर जिंस के जानवर, जो ज़मीन पर थे, उनको हज़रत नूह के पास जमा किये। उन्होंने इन चरिंदों, परिदों और दरिंदों का एक-एक जोड़ा कश्ती में चढ़ाया, हज़रत नूह पर ईमान लाने वाले 82 मुसलमान भी कश्ती पर सवार हो गये। जब पूरी तैयारी हो गयी, तब अल्लाह का अज़ाब आना शुरू हुआ। भयानक अज़ाब, तनूर से फ़व्वारे की तरह पानी बहना शुरू हो गया, बारिश का पानी अलग पूरी ज़मीन में पानी ही पानी भर उठा।

हज़रत नूह की कश्ती समुद्र की तरह ठाठें मारते हुए उस पानी में तैरने लगी। काफ़िर भाग-भागकर इधर-उधर पनाह लेने लगे लेकिन उन्हें पनाह कहां।

कश्ती पर न सवार होने वालों में हज़रत नूह की बीवी और उका बेटा कनआन भी था। पूछा, अब क्या करोगे ?

बोला, पहाड़ पर पनाह ले लूंगा।

"इसका भी कोई फ़ायदा न होगा'- हज़रत नूह ने साफ़-साफ़ बता दिया।

इसी बीच पानी की एक ज़ोरदार मौज आयी और उसे डुबा दिया, वह

बच न सका।

हज़रत नूह को रहम आ गया, दुआ मांगी, खुदावंद! यह बेटा मेरे अहल (घर वालों) में से है, तू अपना वादा पूरा कर।

हुक्म हुआ कि अल वह है जिसके अमल भले हों, बद अमल ना-अहल है।

चालीस दिन तक ज़ोरों की बारिश होती रही, जमीन के अंदर से भी पानी उबलता रहा। कश्ती पर सवार लोगों के अलावा इंसान, इमारतें, बाग़, पेड़ पौधे, सब डूब गये। कश्ती पर सवार लोग भी, गरचे अल्लाह पर ईमान रखते थे, उनकी रहमत की उम्मीदें रखते थे, फिर भी कभी परेशान हो जाते कि कश्ती डूब न जाए। उन्हें तस्कन देने के लिए हुक्म हुआ कि -

बिस्मिल्लाहि मजरेहा व मुर्साहा.

जो कोई पढ़ेगा, अल्लाह तआला उसकी तमाम मुश्किलों को हल करेगा।

बहरहाल किश्ती पर सवार लोग बच गये, तूफ़ान रुक गया, पानी

खिसक गया।

जब कश्ती से उतरने का वक़्त आया तो हज़रत नूह ने कव्वे से फ़रमाया, जा और पानी की हालत मालूम करके जल्द आ । कव्वा गया लेकिन मुर्दार खाने के चक्कर में जल्दी लौट कर न आया, वह भूल गया कि अल्लाह के पैग़म्बर ने क्या कहा है। हज़रत नूह अलै. ने उसके लिए बददुआ कर दी और वह हमेशा के लिए ज़लील व रुसवा होकर रह गया। मुर्दार खाना उसका मुक़द्दर हो गया।

इसके बाद कबूतर को भेजा गया, वह जैतून के पत्तों को चोंच में लेकर वापस हुआ। तब हज़रत नूह ने समझा कि पेड़ों के सर पानी से बाहर आ चुके है। अब कबूतर को ही पानी की ख़बर लाने के लिए रोज भेजा जाने लगा। एक दिन कबूतर के पावं में कीचड़ लगी हुई पायी गयी, तो यक़ीन हो गया कि अब अज़ाब का दौर ख़त्म हो गया है। कबूतर के हक़ में दुआ की कि वह सबके लिए प्यारा हो जाए। लिखा है कि अल्लाह तआला ने हुक्म किया कि मैं पहाड़ी पर कश्ती को क़रार दूंगा और सब कश्तीवालों को इस पहाड़ पर उतारूंगा। आखिरकार जूदी पहाड़ पर कश्ती रुकी, वहीं सब उतरे और एक गांव आबाद कर दिया गया। बहुत दिनों के बाद यह गांव भी वबा का शिकार होकर खत्म सिर्फ़ बचे हज़रत नूह और उनके तीन बेटे- हाम, साम और याफ़्स। गया।

फिर हज़रत नूह की नस्ल में अल्लाह तआला ने ऐसी बरकत रखी कि चालीस वर्ष की मुद्दत में हज़ारों शहर आबाद हो गये। फिर हज़रत नूह ने सीरिया, फ़ारस के ज़ज़ीरे, खुरासान और इराक़ के इलाक़े का निगरां साम को बनाया और पश्चिमी इलाक़े हब्श और सिध हाम के जिम्मे किये चीन, तुर्किस्तान वग़ैरह याफ़्स के हवाले किया।

एक दिन जिब्रील और इज़राईल ने हज़रत नूह से पूछा, एक लम्बी उम्र पाने के बावजूद, तुमने इस दुनिया को कैसा पाया?

कहा, धुएं जैसा, कि एक जगह से चलकर दूसरी जगह से निकल

आया।

जब हज़रत नूह बीमार हुए और उसी में इंतिक़ाल फ़रमाया। बेटों ने आपको बैतुल मक़िदस में दफ़न किया। बाप 'मरने का ग़म बेटों पर बहुत था।

हज़रत नूह को 'आदम सानी' (द्वितीय), 'शेखुल अंबिया' और 'नजीयुल्लाह' भी कहते हैं। वह सच्चे पैग़म्बर थे। अल्लाह का पैग़ाम दूसरों तक पहुँचाते और उसकी इबादत में हमेशा लगे रहते। वह दिन में तीन सौ रक्अत नमाज़ अदा करते थे।

कहा जाता है कि तूफ़ान के मौके पर जब कश्ती में लोग सवार थे, तो कश्ती वाले को बदबू और गंदगी से बड़ी ज़बरदस्त तक्लीफ़ हो रही थी। कोई हल समझ में न आता था। हज़रत नूह अलै. ने अल्लाह से दुआ की कि इस मुसीबत को दूर फ़रमा। हुक्म हुआ कि तुम अपना हाथ हाथी के पेट पर रखो, फिर हमारा करिश्मा देखो। हज़रत नूह के हाथ फेरते ही एक सुअर पैदा हो गया और कश्ती की सब गंदगी को उसने खाकर दूर कर दी।

इसी तरह वे लोग चूहों से भी परेशान थे। अल्लाह के हुक्म

से हज़रत

नूह ने ज्यों ही शेर के माथे पर हाथ रखा, ख़ुदा की शान कि बिल्ली ने निकल कर उन्हें खा लिया। हज़रत नूह के बाद फिर धीरे-धीरे लोग असल रास्ते से हटते गये और

मराह होते चले गये। फिर अल्लाह तआला ने हज़रत हूद को पैग़म्बर बना

कर भेजा, ताकि क़ौम में सुधार लाया जा सके।

हज़रत शीस अलैहिस्सलाम

                   हज़रत शीस अलैहिस्सलाम

जब हज़रत आदम हाबील के ग़म में बेक़रार रहते थे तो अल्लाह तआला ने जिब्रील को भेजकर उन्हें तसल्ली दी थी कि ग़म न करो, एक बेहतर बेटा दूंगा जिसकी नस्ल से ही आखिरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पैदा होंगे, जो पूरी दुनिया के सरदार होंगे।

चुनांचे हाबील के मरने के पांच साल बाद हज़रत शीस पैदा हुए, जो हज़रत आदम ही की तरह खूबसूरत और नेक थे। हज़रत आदम उनसे मुहब्बत भी बहुत करते थे। उन्होंने इंतिक़ाल के वक़्त उन्हीं को अपना जानशीन बनाया और वसीयत की कि हज़रत नूह के ज़माने में जब तूफ़ान का हादसा होगा, तो तुम अगर उस ज़मीन को पाओ, तो मेरी हड्डियों को कश्ती में रखवा देना, ताकि ग़र्क़ न होने पायें या फिर अपनी औलाद को वसीयत कर जाना।

हज़रत शीस अपने बाप की ज़बानी अकसर बहिश्त के हालात सुना करते और लज़्ज़त लिया करते। वह आसमानी किताबों की बातें भी पूछा करते। उसी वक़त से जन्नत पाने की धुन थी, इसीलिए वह अल्लाह को खुश करने के लिए बेहद इताअत व फ़रमांबरदारी में लगे रहते, भलाई के काम करते, इंसानियत की ख़िदमत करते।

हज़रत शीस के ज़माने में औलादे आदम दो हिस्सों में तक़सीम हो गयी कुछ तो शीस का कहा मानते और कुछ क़ाबील की बतायी रा

ह पर थी। चलते हज़रत शीस की नसीहत से इनमें से कुछ तो सीधे रास्ते पर आ गये और कुछ नाफ़रमानी की राह पर चलते रहे।

जब उनकी उम्र नौ सो बारह वर्ष हो गयी तो इंतिक़ाल फ़रमा गए ।

हज़रत शीस की कुछ नसीहतों में यह है कि सच्चा मोमिन वह है जिसमें ये ख़ूबियां हों★ एक, वह जो

ख़ुदा

को पहचान गया हो।

★ दूसरे, नेक और बद को जान गया हो।

★ तीसरे, वक़्त के बादशाह का हुक्म बजा लाता हो।

★ चौथा, मां-बाप का हक़ पहचानता हो। उनकी ख़िदमत करता हो। ★ पांचवा, रिश्तेदारों में से ताल्लुक़ात जोड़ता हो, यानी अपनों से नेकी का

बर्ताव करता हो।

★ छठा, गुस्से को हद से ज्यादा न बढ़ाता हो ।

★ सातवां, मुहताजों और मिस्कीनों को सदक़ा देता हो और उन पर तरस खाता हो।

★ आठवां, गुनाहों से परहेज करता हो और मुसीबतों में सब्र करता हो।

★ नवां, अल्लाह की दी हुई नेमतों का शुक्र अदा करता हो। हज़रत इद्रीस अलैहिस्सलाम का नाम इब्रानी ज़बान में उखनूख है।

              हाबील और क़ाबील


                   हाबिल और काबिल की पैदाइश                    

अब हज़रत आदम और हव्वा मिलकर रहने लगे। दोनों से मिलकर इंसानी नस्ल का सिलसिला शुरू हुआ। हज़रत हव्वा को जब भी हमल होता, दो जुड़वां बच्चे जन्म लेते- एक लड़की, एक लड़का । क़ाबील का जन्म हुआ तो साथ में उनकी बहन अक़लीया भी पैदा हुई, इसी तरह हाबील का जन्म हुआ तो बहन यहूदा भी पैदा हुई

Habib and kabil

खुदाई हुक्म के मुताबिक़ हज़रत आदम की शरीअत में यह क़ानून भी मुक़र्रर था कि एक पेट की बेटी और दूसरे पेट का बेटा आपस में ब्याहे जाते थे, हज़रत आदम ने इसी क़ानून के मुताबिक़ इनकी आपस में शादी कर देनी चाही, लेकिन क़ाबील ने बाप का हुक्म न माना।

हज़रत आदम ने हल यह निकाला कि दोनों बेटे क़ुर्बानी पेश करें, जिसकी कुर्बानी क़बूल हो, अक़लीया उसके निकाह में आये।

उस ज़माने में कुर्बानी का दस्तूर यह बनाया गया था कि अगर दो आदमी आपस में झगड़ते तो दोनों अपनी-अपनी कुर्बानी पहाड़ पर रखते। फिर बिना धुंए की आग आसमान से उतरती और जो हक़ पर होता था उसकी कुर्बानी को क़बूल कर लेती।


जब दोनों भाई राजी हुए तो हाबील ने एक मोटा-ताज़ा मेंढा अपने गले में से जुदा किया और काबील एक टोकरा गेहूँ का ले जाकर रख आया। जब ये दोनों पहाड़ पर अपनी कुंर्बानी को रख आये, ख़ुदा की कुदरत से एक आग आसमान की तरफ़ से आयी और हाबील की कुर्बानी को क़बूल कर लिया। क़ाबील जल उठा, बोला, “हाबील! मैं तुझको अब क़त्ल कर दूंगा।”

हाबील बोले, “अल्लाह तो परहेज़गारों की कुर्बानी क़बूल करता है, अगर तुम मुझ पर हाथ चलाओगे तो भी मैं तुझ पर हाथ न डालूंगा, मैं अल्लाह पर भरोसा रखूंगा।"

लेकिन क़ाबील तो जलन का शिकार हो गया था। उस पत्थर दिल ने मौक़ा देखकर हाबील के सर पर ऐसा पत्थर मारा कि हाबील शहीद हो गये। क़ाबील ने बहुत बड़ा गुनाह किया था।

हाबील के शहीद होने पर क़ाबील, जब होश में आया, तो परेशान हो उठा, भाई की लाश उठाये-उठाये फिरता रहा, समझ में न आता था कि क्या करे, किस तरह लाश को दूसरों की नज़र से छिपाये।

फिर अल्लाह के हुक्म से दो कौए आये। वे भी आपस में लड़ने लगे। एक ने दूसरे को मारकर गिरा दिया और अपने पंजों से ज़मीन खोद कर उसको गाड़ दिया। काबील इस पूरे वाकिए को अपनी आंखों से देख चुका था। मन ही मन सोचने लगा, अफ़सोस कि कौए से भी घटिया हूँ कि अपने भाई की लाश नहीं छिपा पाता। फिर उसने जमीन खोदी और भाई की लाश को ढाँक दिया।

काबील का यह जुर्म भयानक था। ख़ुदा ने हुक्म दिया कि सजा के तौर पर इसे भी क़त्ल करो। काबील को मालूम हुआ तो वह भाग खड़ा हुआ और यमन देश पहुंचा। वहाँ वह आग की पूजा करने लगा।

हज़रत आदम हमेशा काबा को हज के वास्ते जाया करते थे। एक बार अरफात पहाड़ पर गये। अल्लाह तआला ने उनकी पीठ से क़ियामत तक पैदा होने वाली तमाम नस्ल की रूहों को, जिनमें अच्छों को सीधी तरफ़ और बुरों को उल्टी तरफ ला खड़ा किया और उन सबसे पूछा

अलस्तु विरब्बिकुम (क्या मैं तुम्हारा रब नहीं हूँ?) सब ने 'बला' (हाँ, तू हमारा रब है।) कहा,

अल्लाह तआला ने उनके इस इकरार पर फरिश्तों की गवाही ली और उसे हजरे अस्वद (काले लत्थर) में अमानत के तौर पर रख दी। हज़रत अली (रजि.) इसी लिए रिवायत करते हैं कि जो कोई हज करेगा, तो हजरे अस्वद उसकी गवाही देगा।

जब हजरत आदम ने अपनी इतनी नस्ल को देखी तो ख़ुदा से अर्ज किया कि खुदावंद! इतने सारे लोग दुनिया में कहा समाएँगे ? इर्शाद हुआ कि । तमाम रूहें एक साथ दुनिया में नहीं आयेंगी, कुछ को जमीन पर रखूंगा, ये कुछ मरने के बाद जमीन के नीचे होंगी, कुछ को बाप की पुश्त में और कुछ माओं के पेट में होंगी।

हज़रत आदम जब अर्ज कर रहे थे, उस वक़्त हज़रत आदम की सीधी तरफ एक हसीन नव जवान मौजूद था, वह रो रहा था। हज़रत आदम की नज उस पर पड़ी तो उन्होंने हजरत जिब्ररील से पूछा, यह कौन है ?

उन्होंने बताया, यह तुम्हारी नस्ल ही का एक नौजवान है, जो अल्लाह का पैग़म्बर है, नाम दाऊद है। एक छोटी-सी ख़ता की वजह से वह रो रहा है। हज़रत आदम ने पूछा उम्र क्या है। बताया, साठ वर्ष, फिर हज़रत आदम ने किब्ले की तरफ़ मुंह करके दुआ की कि खदावंद! मेरी उम्र तो तू ने एक हज़ार वर्ष की मुक़र्रर की है, मेरी इस उम्र में से तू इसको चालीस वर्ष दे दे। अल्लाह ने यह दुआ क़बूल कर ली। इस तरह जब हज़रत आदम 960 वर्ष के हो गये और इज़राईल अलैहिस्सलाम रूह क़ब्ज़ करने आये तो हज़रत आदम ने फ़रमाया, अभी तो उम्र के चालीस वर्ष बाक़ी हैं? तो उन्होंने याद दिलाया कि ये चालीस वर्ष तो आपने मीसाक़ (वचन) के दिन हज़रत दऊद को दे दिये थे। हज़रत आदम को यह बात याद न रही थी, इसी लिए वह बराबर इंकार करते रहे। अल्लाह ने बहरहाल उनकी बात मान ली, लेकिन आइंदा के लिए यह हुक्म हो गया कि हर मामले को गवाहों के साथ लिख लिया जाया करे, ताकि कोई इंकार न कर सके।


हज़रत आदम बीमार हुए तो उनको बहिश्त के मेवों के खाने की ख़्वाहिश हुई। औलाद से कहा कि वह इसे हासिल करे। जब बाहर आये तो देखा कि जिब्रील और कई फ़रिश्ते कफ़न और ख़ुश्बू बहिश्त की लिए चले जा रहे हैं। उनसे हज़रत आदम की ख़्वाहिश का ज़िक्र किया। हज़रत जिब्रील ने बताया कि हम इसी लिए आये हैं कि उनको वहाँ पहुँचा दें, जहां वह अपनी ख़्वाहिश पूरी कर लेंगे।

फ़िर हज़रत आदम ने अपनी बीवी और लड़कों से फ़रमाया कि तुम यहां से जाओ और मुझे ख़ुदा के फ़रिश्तों पर छोड़ दो। हज़रत आदम ख़ुदा की याद में लग गये, यहां तक कि फ़रिश्तों ने उनकी रूह क़ब्ज़ कर ली।


हज़रत आदम की नमाज़े जनाज़ा, हज़रत शीस अलै. ने जिब्रील की तालीम के मुताबिक़ पढ़ाई और हज़रत आदम को दफ़्न कर दिया गया।


क़ियामत तक आदम की नस्ल के लिए नमाज़े जनाज़ा की यह रस्म


उसी वक़्त से चल रही है।


                    हज़रत आदम (अलैहिस्सलाम) की पैदाइश


रिवायत करने वाले बयान करते हैं कि जब अपनी ख़िलाफ़त (नायबी) के लिए अल्लाह का इरादा हुआ कि


इन्नी जाअिलुन फ़िल अर्ज़ि ख़लीफ़ा.


मैं ज़मीन में एक ख़लीफ़ा बनानेवाला हूँ


तब हज़रत इज़्राईल को हुक्म हुआ कि हर क़िस्म की लाल-सफ़ेद और काली एक मुठ्ठी रंगा-रंग मिट्टी जमा करके लाये और अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ मक्का और तायफ़ के दर्मियान रखी गई अल्लाहन ने उस मिट्टी पर अपनी रहमत की बारिश की और उसी मिट्टी के ख़मीर से हज़रत आदम अलैहिस्सलाम का पुतला तैयार किया साल तक वह पुतला बेजान पड़ा रहा। जब अल्लाह ने चाहा कि हज़रत आदम (अलै.) का सितारा रौशन हो और आदम की औलाद (इंसान) का दर्जा पूरी दुनिया में बुलंद हो, तो रूह को हुक्म हुआ कि आदम के जिस्म में उतर उस नर्म रूह ने सख़्त मिट्टी में जाने से इन्कार किया। रब का हुक्म रूह को पहुँचा कि ऐ जान ! इस बदन में दाख़िल हो। फिर जब रूह आदम के सिर की तरफ़ से दाख़िल हुई तो जिस-जिस जगह पहुँचती जाती, पत्थर बना जिस्म मांस-हड्डी में बदलता चला गया। जब सीने तक पहुँची तो हज़रत आदम ने उठने का इरादा किया, वहीं ज़मीन पर गिर पड़े। शायद इसी लिए कुरआन मजीद में फ़रमाया गया है कि इंसान बड़ा जल्दबाज़ है। उसी हालत में हज़रत आदम ने छींका, अल्लाह की ओर से, इल्हाम हुआ और कहा 'अल्हम्दु लिल्लाह' (तमाम तारीफ़े अल्लाह की हैं)। उस करीम-रहीम ने अपनी रहमत से फ़रमाया 'यर्हमु कल्लाह (अल्लाह आप पर रहमत फ़रमाये)। यह अल्लाह की रहमत का पहला जल्वा था।


इसके बाद अल्लाह के हुक्म से एक फ़रिश्ता बहिश्त से सजा-सजाया जोड़ा लाया, हज़रत को पहनाया और इज़्ज़त के साथ तख़्त पर बिठाया।


नक़ल है कि हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की पैदाइश के वक़्त फ़रिश्ते आपस में कहते कि अल्लाह ख़ाक से पैदा कर के जिस हस्ती को ख़िलाफ़त की गद्दी पर बिठायेगा, तो वह ख़ुदा के नज़दीक हमसे ज़्यादा अज़ीज़ न होगा और ग़ैब के जानने वाले के दरबार में हम जो दिन-रात रहते हैं, हमें उम्मीद है कि हमारा इल्म उससे ज़्यादा होगा। फिर हक़ तआला ने तमाम चीज़ों के नाम हज़रत आदम को सिखला दिये। फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि अगर तुम सच्चे हो तो इन चीज़ों के नाम बताओ। फ़रिश्ते जवाब न दे सके। अपनी ग़लती मानते हुए बोले, पाक है तू, हम तो सिर्फ़ उतना ही जानते हैं, जितना तूने सिखाया, और तुझसे बढ़कर जानने वाला कौन है!


तब अल्लाह तआला ने आदम को ज़ाहिरी और बातिनी कमाल से आरास्ता (सुसज्जित) किया और उसकी इज़्ज़त को बढ़ाने के लिए फ़रिश्तों को, जो हज़रत आदम (अलै.) के तख़्त के चारों तरफ़ लाइनों में अदब के साथ खड़े थे, हुक्म दिया कि आदम को सज्दा करो। तमाम फ़रिश्तों ने हज़रत आदम को सज्दा किया, मगर इब्लीस ने इंकार कर दिया और बोला कि मैं आपसे बेहतर हूँ, इसलिए कि मुझे आग से और आदम को मिट्टी से पैदा किया गया है। उस के इस इंकार से उसपर फिटकार पड़ी और उसे फ़रिश्तों के साथ से अलग कर दिया गया। हज़रत आदम बहिश्त में रहने लगे।


तबीयत में आया कि कोई उनका साथी हो, ज़िंदगी का साथी हज़रत पर ख़्वाब ने ग़लबा किया। इसी बीच अल्लाह ने अपनी कुदरत से आदम (अलै.) के पहलू से हज़रत हव्वा को पैदा कर दिया। जब वह जागे तो देखा कि एक पाक-साफ़ औरत बैठी है, बहुत ख़ुश हुए। पूछा कि तू कौन है ?


हज़रत हव्वा ने कहा कि मैं तेरे बदन का हिस्सा हूँ। अल्लाह तआला ने तेरी पसली से मुझे पैदा किया है।


कहा जाता है। हज़रत हव्वा बहुत ही खूबसूरत थीं। हज़रत की खुशी का ठिकाना न था। हज़रत हव्वा को पाकर सज्द-ए-शुक्र अदा किया। अल्लाह तआला की तरफ़ से अर्श के उठाने वाले और आसमानी फ़रिश्तों के मामने इन दोनों का निकाह हुआ, फिर इन दोनों को हुक्म हुआ कि तुम इसी बहिश्त में रहो, जो चाहो खाओ, मगर उस पेड़ के नज़दीक मत जाना। इशारा गैहूँ के पौधे की तरफ़ था।


इब्लीस ने आदम को सज्दा नहीं किया था और वह निकाल दिया गया था, इसलिए उसे हज़रत आदम से ख़ास तौर से जलन हो गयी थी। वह हमेशा ऐसे उपाय सोचता कि किसी तरह आदम को बहिश्त से निकाले।


इसके लिए पहले वह मोर के पास गया, उससे दोस्ती की और कहा, मेरी दोस्ती के हक़ तुझ पर साबित हैं, हम-तुम एक मकान में रहते भी थे, मेरी दख़्वस्त तुमसे यह है कि मुझे अपने बाजू पर बिठाकर बहिश्त में पहुँचा दो ताकि मैं अपने दुश्मन से बदला ले सकूँ। मोर ने इस काम के करने से इंकार कर दिया और कहा कि तू यह बात सांप से कह।


तब शैतान साँप के पास गया और उसको अपने जाल में फँसा ही लिया। सांप उसको मुंह में रखकर बहिश्त में ले गया।


फिर हज़रत आदम और हव्वा के पास गया और रोना शुरू कर दिया। पूछा, क्यों रोता है? उन्होंने शैतान को पहचाना नहीं था।


शैतान ने कहा, मैं तुमको नसीहत करता हूँ, मुझको तो तुम्हारे रोना आता है कि तुम इस बहिश्त से निकाले जाओगे और ये बहिश्त की नेमतें तुमसे सब की सब ले ली जायेंगी और ज़िंदगी की लज़्ज़त के बजाय मौत के दर्द का मज़ा चखोगे। हाल पर


दोनों ने शैतान की जब ये बातें सुनीं तो बड़ा ग़म हुआ।


इब्लीस ने कहा, अगर तुम मेरा कहना मानो तो तुम • एक पेड़ बताऊँ, अगर थोड़ा फल उसका खाओगे तो हमेशा ज़िंदा रहोगे और मौत की शक्ल कभी न देखोगे।


हज़रत आदम ने पूछा, वह कौन-सा है ?


शैतान ने कहा, वही पेड़ है जिसके खाने से अल्लाह तआला ने मना किया है।


हज़रत आदम ने इस बात को क़बूल नहीं किया कि मैं ख़ुदा की कभी नाफ़रमानी न करूंगा। जब शैतान ने क़सम खाई कि मैं तुम्हारा भला चाहता हूँ, तो भी वह इस नाफ़रमानी के लिए तैयार न हुए और उठकर चले गये। फिर शैतान ने हज़रत हव्वा की ख़िदमत में जाकर इस तरह उनके दिल में भी वसवसे डाले और सांप ने शैतान के कहने पर गवाही दी।


हज़रत हव्वा ने हज़रत आदम से फ़रमाया कि सांप तो बहिश्त का ख़ादिम है और वह शैतान के हक़ में गवाही दे रहा है, तो मैं पहले इस पेड़ का फल खाती हूँ। अगर कोई बात पड़े तो मेरे वास्ते ख़ुदा से माफ़ी मांग लेना और नहीं तो तुम भी खाओ कि हम तुम दोनों तमाम उम्र बहिश्त की नेमतों को चैन से खाया करें।


जन्नत से निकाले गये


कहा जाता है कि अल्लाह ने शुरू ही में तै कर दिया था कि आदम की


फ़र्माबरदार औलाद बहिश्त में और नाफ़रमान औलाद दोज़ख़ में जाएगी, अगर सबको जन्नत ही में रखना होता तो दोज़ख़ कैसे भरी जाती और आमाल का हिसाब-किताब ही क्यों होता। गेहूँ का पौधा भी इसी आज़माइश के लिए रखा गया था, जो उनके बहिश्त के निकाले जाने की वजह बना।


उलमा ने लिखा है कि जब हज़रत हव्वा ने थोड़े से गेहूँ के फल खा लिए और उनके कहने से हज़रत आदम ने भी कुछ खा लिए तो अभी तक हज़रत आदम के मेदे में गेहूँ पूरी तरह हज़म भी नहीं हुआ था कि बहिश्त का लिबास जिस्म से गिर पड़ा, जिस्म नंगा हो गया। मजबूर होकर इंजीर के पत्तों से जल्दी-जल्दी जिस्म ढांका। हुक्म हुआ कि ऐ आदम! तेरे नंगे होने की वजह क्या है ? कहा, अल्लाह! इसकी वजह यह है कि तेरी मर्ज़ी पर अमल न किया, उस मना किये हुए पेड़ का फल खा लिया। फिर आदम ने यह भी अर्ज़ किया कि यह ग़लती सांप और मोर के बहकाने और क़सम खाने से हुई है, जबकि ये बहिश्त के अमीन और रखवाले हैं।


कहा जाता है कि उस वक़्त सांप शक्ल व सूरत के एतिबार से बहुत ही खुबसूरत था, इस जैसा बहिश्त में कोई जानवर भी न था। अल्लाह तआला ने इस गुनाह की वजह से उसका चेहरा बिगाड़ दिया। मिट्टी धूल को उसका खाना बना दिया और पेट सीने के बल ज़मीन को रगड़ना और छाती को छीलना मुक़द्दर हो गया।


इसी जुर्म के अज़ाब के तौर पर हज़रत हव्वा और उनकी बेटियों को जनने का दर्द दिया, हैज़ (माहवारी) की गंदगी दी और ख़ाविदों के हुक्म में रहना और उनकी ताबेदारी करना तै कर दिया। में


मोर को भी सज़ा मिली, उसकी भी शक्ल बदल गयी, चुनांचे पांव तो बद-सूरती के लिए मशहूर ही हैं।


फिर हुक्म हुआ कि सबके सब बहिश्त से निकलो और ज़मीन पर उतरो और आपस में के दुश्मन बने रहो। इस तरह आदम, हव्वा, एक-दूसरे शैतान, सांप और मोर, सभी जन्नत से जमीन पर जिल्लत और रुसवाई के साथ पहुँचे और सज़ा के तौर पर सब के सब अलग रखे गये।


रिवायत में है कि हज़रत आदम सरानदीप में, हज़रत हव्वा जद्दा में, शैतान सीसतान में, सांप अस्फ़हान में और मोर काबुल में उतारा गया। इसी तरह इब्लीस और आदम की औलाद में हमेशा-हमेशा के लिए दुश्मनी पैदा हो गयी और क़ियामत तक रहेगी।


इस वाक़िया के बाद हज़रत आदम ने चालीस दिन तक न खाना खाया,


न पानी पिया, हज़रत हव्वा की जुदाई से तड़पते रहे। तीन सौ वर्ष तक रोते रहे। और तौबा व इस्तिफ़ार करते रहे। फिर सबसे बड़े रहीम अल्लाह ने अपनी मेहरबानी से हज़रत आदम के


दिल में ये कुछ कलिमे उतारे


रब्बना जलम्ना अन्फु-सन व इल्लम तरिफर लना व तहम्ना ल-न कूनन्न मिनल् खासिरीन. ला इला-ह इल्ला अन्त सुब्हान क व बिहम्दि-क अमिलतु सूअन व जलम्तु नम्सी फ़रिफ़रली ।


"ऐ हमारे रब ! हमने अपने आप पर ज़ुल्म किया है और अगर तूने बख़्शा नहीं और रहम न किया तो हमें ज़रूर ही घाटा उठानेवालों में हो जायेंगे। तेरे अलावा कोई इबादत के लायक नहीं। तू पाक है हर ग़लती से, और तेरी हर पहलू से तारीफ़ है। मैं ने एक ख़ता की और मैंने अपने आप पर जुल्म किया, तो तू मुझे माफ़ कर दे। "


इन कलिमों के पढ़ने के बाद हज़रत जिब्रील आये और गुनाह की माफ़ी की खुशखबरी लाये। हज़रत आदम बहुत खुश हुए। इस खुशी में, अल्लाह का इशारा पाकर, उन्होंने चांद की तरह-चौदह-पन्द्रह तारीख़ों के रोज़े रखे। इन रोज़ों से उनके क़ल्ब को इत्मीनान हुआ और जिस्म को राहत मिली। इस दुआ और रोज़ों की इसी बरकत की वजह से कहा जाता है कि आदम की औलाद में से जो भी इस दुआ को पढ़ेगा और इन तीन रोज़ों की हर महीने में आदत रखेगा, उसके गुनाह माफ़ हो जायेंगे और उसका दिल जो गुनाहों की मुसीबत में स्याह हो रहा है, साफ़ और रौशन हो जाएगा। इसके बाद हज़रत आदम को हुक्म हुआ कि ख़ान-ए-काबा की बुनियाद रखें। हज़रत आदम ने जिबील की तालीम से और फ़रिश्तों की मदद से काबे की बुनियाद रखी और हजरे अस्वद को, जिसे वह अपने साथ बहिश्त से लाये थे और उसमें अहदनामा और क़ौल व क़रार रोज़े अलस्ते' का ख़ुदा ने रखा था, काबे में एक तरफ़ जमाया।


काबा तैयार होने के बाद हज़रत जिबरील ने हज और तवाफ़ के तरीके बताये। हज़रत आदम इन सबसे छुट्टी पाकर हज़रत जिबील के कहने से अरफ़ात पहाड़ पर चढ़े। हज़रत हव्वा भी हज़रत आदम के लिए परेशान थीं, घूमती-फिरती वह अरफ़ात पहुँच गयी थीं। धूप और गर्मी से उनका रंग भी बदल गया था। दोनों एक-दूसरे को न पहचान सके। हज़रत जिब्रील ने एक-दूसरे को पहचनवाया। दोनों का मिलना हुआ।


फिर दोनों अल्लाह की मर्जी के मुताबिक़ सरानदीप को आये। हज़रत जिब्रील ने गेहूँ, रोटी और लकड़ी पहुँचायी, खेती करना सिखाया, दो बैल भेजे और दोनों मेहनत-मशक़्क़त, और लगे। सुकून के साथ रोटी खाने कमाने




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