Hajrat hud alaihissalam

 अल्लाह तआला ने हज़रत हूद अलैहिस्सलाम को क़ौमे आद की तरफ़ भेजा। उस क़ौम के लोग लम्बे क़द और चौड़े जिस्म वाले थे। उनमें का सबसे लम्बा 100 गज़ का और ठेंगना 60 गज़ का आदमी था। बुतपरस्ती का चलन बहुत ज़ोरों पर था। ख़ुदा को भुला बैठे थे। पत्थर काट-काट कर पहाड़ों में खूबसूरत से खूबसूरत मकान बनाते थे, लेकिन पत्थर के काम में ये जितने माहिर थे, उतने ही पत्थर दिल भी थे।


फिर भी उनमें एक गिरोह भले लोगों का भी था, जो अल्लाह पर ईमान लाया था, लेकिन ज़ालिमों के डर से अपना ईमान छिपाये हुए था। जब हज़रत हूद अलैहिस्सलाम की वाज़ व नसीहत खुलकर होने लगीं, तो ये भले लोग हज़रत हूद का पूरा साथ देने लगे।


हज़रत हूद का पैग़ाम ज्यों-ज्यों फैलता गया, काफ़िरों की मुखालफ़त भी तेज़ हो गयी। इन भले लोगों ने इसकी इत्तिला हज़रत हूद को दे दी। हज़रत हूद ने अल्लाह के हुज़ूर इन दुश्मनों के लिए बद-दुआ की। चुनांचे बरसात नहीं हुई, बाग़ और खेती सब सूखने लगी। यह अकाल सात वर्ष तक चलता रहा, लोगों का बुरा हाल हो गया। भूखे-प्यासे मरने लगे।


मौक़ा मुनासिब समझ कर हज़रत हूद ने उन्हें समझाना शुरू किया और फ़रमाया कि ईमान लाओ, अपने आपको दुनिया की इन परेशानियों से बचाओ। ये सब परेशानियां तुम्हारे कुफ़्र की वजह से तुम पर आयी हैं।


लेकिन काफ़िरों ने हज़रत हृद की नसीहतों पर कान न धरा, अपने कुन पर डटे रहे और यही कहते रहे, हम तेरे कहने से बुतों को न छोड़ेंगे और अपने बाप-दादाओं के दीन से मुंह न मोड़ेंगे।


उस ज़माने का क़ायदा था, जिसे किसी बड़ी मुश्किल का सामना होता था तो वह मक्का में काबे में जाकर दुआ करता था जो क़बूल हो जाती। उन दिनों आद क़ौम के अलावा अमालका की क़ौम मक्का में रहती थी, जो अपने को मक्का का सरदार कहती थी। जब आद क़ौम के लोग इन परेशानियों के शिकार हुए तो उनके सत्तर सरदार वहाँ जाने को तैयार हो गये कि वहाँ जाकर बारिश की दुआ करें।


ये लोग जब लम्बा सफ़र तै करके मक्का पहुँचे तो माविया बिन बक्र के घर में उतरे। उसने इन सबकी खाने और शराब की ऐसी ज़ोरदार दावत की और नाच-गाने की ऐसी महफिल जमायी कि ये अपने आने का मक़सद ही भूल गये।


बहुत दिनों के बाद उन्हें अपनी क़ौम की याद आयी और अपने आप पर रात दिन लानत-मलामत करते हुए वे सब दुआ में लग गये और कुर्बानियां चढ़ानी शुरू कीं। लेकिन फिर भी कोई नतीजा न निकला।


इन सरदारों में मुर्सद बिन मादान छिपा हुआ मुसलमान था, हज़रत हूद पर उसका पूरा ईमान था। उसने खुलकर कह दिया कि जब तक तुम सब हज़रत की बातों को नहीं मानोगे, अपने मक़सद को नहीं हासिल कर सकोगे।


इन लोगों ने उसका भी बाईकाट कर दिया और अपने तौर पर दुआ करते रहे।


इतने में तीन टुकड़े बादल के दिखायी दिये- सफ़ेद, काला, लाल और उन बादलों में से आवाज़ आयी कि इनमें से कोई एक टुकड़ा इख़्तियार कर लो, इसके बाद ख़ुदा के हुक्म का इंतिज़ार करो।


इन लोगों ने काला बादल, पानी के बादल का रूप समझकर अपना बना लिया कि आवाज़ आयी कि तुम्हें अब काली राख बाक़ी न छोड़ेगी, बल्कि अब आद क़ौम धूल-धूल उड़ जायेगी।


अल्लाह के हुक्म से वह काला बादल आद की क़ौम की तरफ़ बढ़ा। लोग काला बादल देखकर बहुत खुश हुए, लेकिन उनके मन में यह विचार आ ही न सका कि यह अज़ाब का बादल है।


हज़रत हूद के ये इंकारी हज़रत हूद का मज़ाक उड़ाने के लिए कहा करते थे- बड़ा सच्चा बनता है तो ले आ न अल्लाह का अज़ाब! हम तेरी बात कहां मान रहे हैं। लेकिन उन्हें क्या ख़बर थी कि जिस हक़ीक़त को वे मज़ाक़ समझ रहे हैं, वह हक़ीक़त बनकर सामने आ गयी है।


जब हज़रत हूद ने देखा कि अज़ाब आ गया तो अल्लाह ही के हुक्म से अपने चार हज़ार ईमानवालों को साथ लिया और बाहर निकलकर उनसे कहा कि यह दायरा जो मैंने उंगली से तुम्हारे चारों तरफ़ खींच दिया है और तुम्हें ख़ुदा ही के हुक्म से उसमें बिठा रहा हूँ ताकि तुम इस अज़ाब से बचे रहो।


देखते-देखते काला बादल आंधी-तूफ़ान में बदल गया । क़ौम के लोग घबरा गये। तुफ़ान इतना ज़बरदस्त था कि इंसान तक हवाओं में उड़ उड़कर काफ़ी दूरी पर पटक-पटक उठते, हड्डियां चूर-चूर हो जातीं। लोग घबराकर घरों की तरफ़ भागे, ताकि सर छिपा सकें और तूफ़ान की इस तेज़ी से अपने को बचा सकें। जब मकान और घर गिरने-ढहने लगे तो दबदबकर लोग मरने लगे। सात दिन और रात आंधी-तूफ़ान का यह सिलसिला चला । तबाही व बर्बादी का नंगा नाच होता रहा और आद क़ौम अल्लाह के अज़ाब का शिकार होकर रह गयी।


हां, हज़रत हूद और उनके साथी इससे बचे रहे। जब अज़ाब का सिलसिला ख़त्म हुआ तो हूद और उनके साथियों ने एक तरफ़ को अपने रहने को मकान तैयार किये और फिर से रहने-सहने लगे।


हज़रत हूद चार सौ चौसठ साल के हुए तो उनका इंतिक़ाल हो गया इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन. शद्दाद का हाले


तारीख लिखने वालों ने शद्दाद का जिक्र हज़रत हूद के बयान के बाद किया है, इसलिए कि उसका ताल्लुक़ भी आद क़ौम ही से था, ताकि ईमान वाले उससे नसीहत हासिल करें।।


आद क़ौम में शद्दाद और शदीद दो भाई थे, जो बड़े दौलतमंद बादशाह थे। शाम (सीरिया) मुल्क में इनकी बादशाही मानी हुई बादशाही थी।


शदीद और उसके लोग, अगरचे शिर्क़ में मुब्तला थे और खराब


अक़ीदा रखते थे, लेकिन उसके इंसाफ़ से शेर और बकरी एक जगह पानी


पीते थे।


कहा जाता है कि उसकी अदालत में दो आदमी आये। इन दोनों में एक ने बताया कि मैंने इस आदमी से ज़मीन का क़ितआ ख़रीदा और क़ीमत देकर उसपर कब्जा कर लिया। फिर मैंने उस जमीन में एक ख़ज़ाना पाया जो मैं इसको देना चाहता हूँ। इसलिए कि मैंने सिर्फ़ ज़मीन खरीदी है, खज़ाना नहीं ख़रीदा है, लेकिन यह लेता नहीं।


दूसरे ने मैंने तो ज़मीन बेच दी, अब ज़मीन और जो कुछ इसमें है, कहा, सब इसका है। इसलिए खज़ाना भी इसी का है, मैं उसे क्यों लूं? लेकिन इसकी समझ में यह छोटी-सी बात नहीं आती।


कैसा था यह अजीब व ग़रीब मुक़द्दमा !


अदालत ने पूछा, यह बताओ, तुम दोनों के पास कोई औलाद है ? एक ने कहा, एक लड़का है, दूसरे ने कहा, एक लड़की है। ने


अदालत ने फ़ैसला सुनाया, तुम दोनों को आपस में ब्याह दो और यह खजाना इन दोनों के हवाले कर दो।


ऐसा था वह इंसाफ़पसंद राजा!हजरत हूढ़ अलै. ने उससे भी ईमान लाने की बात कही थी, पर वह ईमान न लाया और अपने बाप-दादा के धर्म शिर्क पर ही मरा।


शदीद के बाद शद्दाद गद्दी पर बैठा। हज़रत हूद अलै. ने उससे भी ईमान लाने की बात कही।


बोला, अगर मैंने


तुम्हारा दीन क़बूल कर लिया तो उसका फ़ायदा क्या


हजरत हूद ने फ़रमाया, अल्लाह तुम्हें इसके अज के तौर पर जन्नत अता फरमायेगा, उसकी रहमतें तुम पर नाजिल होंगी।


शद्दाद बोला, यह सब कुछ नहीं। मैं तो खुद अपनी जन्नत बनाऊंगा


और दिन-रात वहाँ ऐश मनाऊंगा। फिर शद्दाद ने जन्नत बनाने का प्रोग्राम बना लिया। पूरे मुल्क से सोना-चांदी, हीरे-जवाहर, मुश्क अंबर और मरवारीद के ढेर लग गये। एक खूबसूरत जगह भी तलाश कर ली गयी माहिर कारीगर जमा किये गये और एक मजबूत इमारत की नींव डल दी गयी। एक गरीब की उम्मीदों से भी बड़ी लम्बाई, करीमों की हिम्मत से भी ज्यादा बुलंदी वाली दीवारें तैयार होने लगी-च-इंतिहा खूबसूरत और साफ़-सुथरी इमारत तैयार होने लगी कि आज तक ऐसी इमारत कभी तैयार न हुई।


दीवारों में सोने-चांदी की ईंटें चुनी गयी थीं, छत उस की सोने के पत्तों से सजायी गयी थी, स्तून उसके बिल्लौरी थे और हर जगह बड़े सुन्दर ढंग से जोड़े गये थे। उनकी नहरों में रेत के बजाय अनमोल मोती बिछाये गये थे, उसके पेड़ों में मुश्क और अंबर भरवा दिया था। जिस वक्त खुश्क हवा इन पेड़ों से होकर गुजरती थी, तो रहने वालों के दिमाग़ ख़ुश्बू से भर जाते थे। उसकी जमीन को मिट्टी से पाटने के बजाय मुश्क व अंबर से बिछवाया था। के बारह हजार कंगूरे उसके महलों के चारों तरफ़ बनवाये गए थे। कंगूरों को सुर्ख सोनों से सजाया गया था। महल में खूबसूरत खूबसूरत लड़कियों को से  लाकर ठहराया।


यह मनमोहक बाग़ पांच सौ वर्ष में तैयार हुआ, पूरे मुल्क के जवाहरात इसमें लग गये।


जब महल बनकर तैयार हो गया, तब शद्दाद को इसकी ख़बर दी गयी। शद्दाद एक भारी फ़ौज ले कर चला कि वह उस जन्नत को देखे और वहाँ क़ियाम करे।


अभी वह एक फर्लांग ही चला था कि वहीं डेरा डाल दिया। इरादा था


कि अब अगले दिन सफ़र शुरू होगा।


इसी बीच उसे एक हिरन नजर आया। उसके पांव सोने के थे, सींग सोने के और आखें याकूत की थीं। शद्दाद उसे देख कर हैरान रह गया, अकेला ही से निकल गया घोड़ा दौड़ा कर उसके पीछे चल पड़ा। जब लश्कर बहुत दूर तो उसे एक भयानक क़िस्म का सवार नजर आया। उसने पूछा


'क्या इस इमारत बनाने से तुझे अमान मिल जायेगी या तू इसमें रहकर


हमेशा-हमेशा के लिए ऐश कर करना चाहता है ?


शद्दाद कांप गया, पूछा तू कौन है ?


बोला, मैं मलकुल मौत (मौत का फ़रिश्ता ) हूँ।


शद्दाद ने गिड़गिड़ाकर उससे अर्ज किया, मुझे एक नज़र अपनी उस जन्नत को देख लेने दे, फिर उसके तुरंत बाद ही मेरी जान निकाल लेना। बताया, यह तो रब का हुक्म है, मैं तो एक लम्हा भी मुहलत देने से


मजबूर हूँ।


यह कह कर उसने उसकी जान निकाल ली, जिस्म बेजान होकर रह गया तमन्ना दिल की दिल में धरी रह गयी।


तारीख़ की किताबों में लिखा है कि एक बार अल्लाह की ओर से इज़राईल से पूछा गया कि तू मुद्दतों से लोगों की रूह क़ब्ज़ करता है, बता क्या कभी तूने किसी पर रहम भी किया है और उसकी जान निकालते वक़्त तुझे दया भी आयी है ?


बोला, खुदावंद! मैं तो सब पर दया करता हूँ। फ़रमाया, किस पर ज्यादा दया की।


तब इज़राईल ने बताया कि एक दिन एक कश्ती को मैंने आप ही के हुक्म से तोड़ दिया था और मौज़ों में घिरकर वह कश्ती हमेशा के लिए तबाह हो गयी, उसपर सवार तमाम लोग भी खत्म हो गये, हां सिर्फ़ एक औरत बचा ली गयी, जिसके पेट में बच्चा था।


औरत को फ़रिश्तों ने एक जजीरे में पहुँचा दिया, वहीं उसने एक लड़का जन्म दिया। आपका हुक्म हुआ कि उस औरत की भी जान निकाल लो और लड़के को वहाँ उस औरत के पहलू में डाल दो। उस वक़्त मेरी आंखों से आंसू निकल आये कि इस लड़के का क्या होगा, यह तो तड़पकर मर जायेगा या इसे दरिंदे खा जायेंगे। ख़ुदावंदा ! यही सोचकर मैं रो दिया। मुझे एक तो उस बच्चे पर दया आयी थी और दूसरे अब आयी, जब शद्दाद की रूह क़ब्ज़ करने का हुक्म दिया गया कि उस बेचारे ने कई सौ साल में तो इमारत बनवायी थी, लेकिन वह उसे एक नज़र भी न देख सका और उसकी हसरतें दिल की दिल ही में रह गयीं।


अल्लाह ने फ़रमाया कि यह शद्दाद वही लड़का है जिसपर तूने दया की थी। मैंने उसकी मां के मरने के बाद सूरज और हवा को हुक्म कर दिया था कि इसे अपनी गर्मी और सर्दी से मत सताना, बल्कि फूलों के पत्ते उड़ाकर उसके वास्ते फ़र्श बनाओ। फिर उसके दोनों अंगूठों से दूध और शहद की नहर बहायी। इस तरह मैंने उसकी जान बचायी, पाला-पोसा, यहां तक कि उसे हुकूमत का मालिक बना दिया- इतना सब करने के बाद भी मेरा नाशुक्री करने लगा, बल्कि खुद ख़ुदा बनने का दावा कर बैठा। उस पर तो ग़ज़ब नामिल होना ही चाहिए था।


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